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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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'प्रभाकरगुणाकर चौ०' के अन्त में कवि ने लिखा है :--
'कवि कल्लोल कही एकथा मन कल्पित की धीस कथा । पनरतिहुतरी संमत सरइ, मेदपाट अजिलाणा पुरइ,
श्रीमल साह तणी आग्रही, चरित्र एइ सुणतासुखलहइ।' श्री मो० द० देसाई ने इन पंक्तियों का यह पाठान्तर दिया है :
'कवि कल्लोल......... 'स कथा" के बाद
तिहिं ते लागु छइ उत्सूत्र, ते खमज्यो भगवति जिनसूत्र ।' 'सुमित्रकुमाररास' का प्रथम पद्य इस प्रकार है :
'पणमिसु मण तण वय करी, पहिलो पढम जिणंद, __ जसु पय पंकज पूजतां, पूजइ परमाणंद । इसके अन्त में गुरु परम्परा के अन्तर्गत कवि ने जिनसागर, जिनसुन्दर, जिनहर्ष, जिनचंद और विवेकसंघ का सादर स्मरण किया है। उन्होंने इसकी रचनाकाल इन पंक्तियों में लिखा है :
_ 'संवत पन्नरहसि सतसठइ, जलउर नयर पास
संतुठइ, कीउकवित्त आणंदइ। 'कुलध्वजकुमाररास' का रचनाकाल इस प्रकार बताया है :
'संवत पनर चउरासीइ अ, कीधउ कीधउ प्रबन्ध सुनाम कि, स्वदारा सन्तोष व्रत उपरिइओ, पालउ पालउ मन करि ठामकि,
संवत पनर चउरासीइ । १४८। 'शकुन्तलारास'--जैन कवियों में आपका यह प्रयास मौलिक है। इसमें अयोध्या नरेश दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रसिद्ध कथा जैनमतानुकूल प्रस्तुत की गई है। इसका अन्तिम छंद इस प्रकार है :
'कुल लाज दाखइ, विनय भाखइ सत्य भाखइ जे मुखइ दुष्यन्त राय शकुंतला सुत सदा जयवंतउ सुखइ । ओ रास भणता रंगि सुणतां पाप कसमल परिहरउ,
कवि कहइ धर्मसमुद्र सूद्धा सील उपरि खयकरउ ।१०४।' १. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा, पृ० ६३-६४ २. श्री मो० द० देसाई-जे० गु० क०-भाग ३, पृ० ५४८-४९ ३. वही
४. वही, पृ० ५५२ Jain Education International
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