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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४०५ इनकी भाषा अनलंकृत, साधारण बोलचालकी मरुतुर्जर है। उदाहरणों द्वारा कवि ने विषय वस्तु को हृदयंगम कराने का प्रभावशाली कौशल प्रस्तुत किया है, यथा :
'करे कुमित्र संगु जो कोई, गुनवन्तो जो निर्गुण होइ,
सूखै दाद संग ज्यो हर्यो, दावानल महि पुनु सो पर्यो । इसका अन्तिम छन्द निम्न है
शील प्रबन्ध जे सांभलिए एम्हा, ते नर नारी धनधत्व
सुदर्शन रिषि कवलिए म्हा, चउविह संघ सूप्रसन्न ।' ये अपेक्षा कृत अपरिचित कवि हैं, इतिहास ग्रंथों में इनका केवल नामोल्लेख ही मिलता है।
धर्मदेव-आप पौणिमागच्छीय गुणधीरसूरि के पट्टधर सौभाग्यसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५५४ आसो सुदी ६ को महेसाणां में 'हरिश्चन्द्ररास' लिखा। सं० १५६१ में सीणीजी ग्राम में चौमासे के समय 'अजापुत्ररास' लिखा । सं० १५६३ में इन्होंने (वयर) स्वामीरास लिखा जिनका विवरण आगे दिया गया है। हरिश्चन्द्ररास-सौभाग्यरत्नसूरि के आदेश से लिखा गया, कवि कहता है -
'शासन देवति शारदा सयल शुद्ध सानिध पामीय, श्री सौभाग्यरत्न सूरि गुरु पूनिम पक्षि पवित्र,
तसु आदेशिहिं हूँ रचूं हरिचंदराय चरित्र । १।। रचनाकाल का उल्लेख निम्नांकिन पंक्तियों में किया गया है :
'संवत ओ पनर चउपन्नि मास आसो पक्षि ऊजलइ, छट्ठिइ अ महिसाणां पाद्रि सानिधि श्री शांतिनाथनइं ,
श्री संघनई अ भणिवा काजि, वाचवा मुनिजन साथनइ अ।८१। कवि ने इसमें गुरु परम्परा का भी उल्लेख किया है। 'अजापुत्ररास' का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है :
'आठ महासिद्धि पामीइ समरे जइने नामि,
प्रणमुजिनवर आठमों श्री चन्द्रप्रभ स्वामि, १. श्री मो० ८० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ५३६
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