SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 421
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास धर्मदास-- इन्होंने सं० १५७८ में' धर्मोपदेश श्रावकाचार की रचना की। इसमें इन्होंने रचनाकाल का उल्लेख किया है : 'पन्द्रह सै अठहत्तरि वरिसु संवच्छरु कुसलह कन सरसु, निर्मल वैशाखी अखतीज, बुधवार गुनियहु जानीज ।' इसके आधार पर यह अनुमान होता है कि आप १६वीं शताब्दी के मध्यकाल में हुए थे। धर्मदास का जन्म सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम साहु रामदास और माता का नाम शिवि था। आपके पितामह पद्म बड़े परोपकारी और विद्वानों का सम्मान करने वाले थे। धर्मदास शुद्ध श्रावकधर्म का अपने जीवन भर आचरण करते रहे। 'जैन धर्म सेवै नित्त, अस दह लक्षण भाव पवित्त, नित निर्ग्रन्थ गुरनि मानउं, जिन आगम कहू पठतु सुनहू।'' 'धर्मोपदेश श्रवकाचार' में श्रावकों के दैनिक जीवन में आचरण योग्य सिद्धांतों का प्रवचन किया गया है। अहिंसा, तप, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के अतिरिक्त आठ मद, दस धर्म, बारह भावना और सप्तव्यसन पर प्रकाश डाला गया है । निरन्तर विषयासक्त व्यक्ति को कोई सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती, इस सन्दर्भ में कवि लिखता है : 'रागलीन जीवन मति रहे, इन्द्री जिते परीसा सहै, ता कहू सिद्धि कदाचित् होइ, संसारी तिन जानहु सोइ । अतः मोह त्यागने वाला ही पंडित है :'पुत्र मित्र नारी धन धानु, बंधु शरीर जु कुल असमान, अवरू प्रीय वस्तु अनुसरै, ता पर राग न पंडित करै । इसी प्रकार वेश्यागमन आदि दोषों से बचने की भी चेतावनी दी गई है। जो मनुष्य मानव जीवन को भोग विलास में गवाँ देता है वह मानों कौवा हाँकने के लिए माणिक फेंक देता है : 'समुद्र माह माणिक गिरि जाइ, बूड़त उछरत हाथ चडाइ, 'पून सो काग उडावन काज, सरव्यौ रतन मढ़ वे काज, तेम जीव भवसागर मांहि, पायो मानुष जन्म अनाहि ।" १. डॉ० क० च० कासलीवाल महा० कविवर बूचराज एवं उ० स० पृ० ४-५-६ २. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy