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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
३९९ यथा "शीतल जिन जन्मइ सुपवित्र, भद्दिल पुरवर छइ पवित्र,
तिहा आया गुरु साथि, केवल कीधउं हाथि।" रचना के अन्त में कवि ने अपनी गुरु परम्परा और तत्सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण सूचनायें इन पंक्तियों में दिया है
"श्री उव अस गछ सिगार, वाचकवर श्री देवकुमार, विद्या चवदअपार । तासू पाटि उवझाय कर्मसागर, हआ सर्वगुण मणि रयणागर, शास्त्र
तणा आधार। तासु पाटि उवझायजयवंत देवकल्लोल महिमावंत, दिन दिनते उदिवंत । तासू सीस देवकालसइ हरसइ, पनरहसय गुणहत्तरि वरसइ, रचिउ
रसाल परबन्ध । देवकीति-आपने सं० १५३१ में 'धन्नाशालिभद्र रास' लिखा जिसका उल्लेख श्री मो० द० देसाई ने जैन गुर्जर कवि भाग १ पृ० ६० तथा जैन साहित्य नो इतिहास पृ० ५२४ पर किया है किन्तु अन्य कोई विवरण या भाषा सम्बन्धी उद्धरण आदि नहीं दिया है।
देवप्रभ गणि-आर सोमतिलक सूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५४० से पूर्व 'कुमारपाल रास' लिखा । श्री देसाई जी ने इनके गुरु पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है और निम्नलिखित पंक्ति के आधार पर श्री वीरसिंह को इनका गुरु होना संभव बताया है
"सूरीससिसउ वीरसिंह गुरुपाय पसाइ,
बहु देवप्पह गणि वरेण रचिउ भत्ति रासो।' __ लेकिन जैन गुर्जर कवि भाग ३ में जो पाठ है उससे स्पष्ट सोमतिलक आपके गुरु प्रतीत होते हैं, यथा
"धम्म विसउ जां जगह माहिडूय निच्चल होइ, कुमर रायह तणउं रास, नंदउ तां महीपलि, सूरीसर सिरि सोमतिलक गुरु पाय पसाइ,
बुह देवप्पहगणिवरेण रचिउ दूह रासो।" दोनों प्रतियों के अन्तिम भाग में पाठ भेद होने के कारण गुरु के विषय १. श्री मो० द० देसाई-जे० गु० क० भाग १ पृ० १२० २. वही पृ० ६२
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