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३९८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास उत्तम रचनायें प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत करके मरु गुर्जर जैन साहित्य का भण्डार सम्पन्न किया। इस प्रकार भाव, भाषा, काव्यत्व और धार्मिक संदेश की दृष्टि से देपाल १६वीं शताब्दी के समर्थ कवि सिद्ध होते हैं। इनके रचनाओं की सूची श्री अगरचन्द नाहटा के लेख 'राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल से लिया गया है। हो सकता है कि इनका अभी और भी साहित्य ज्ञान भांडारों में दबा पड़ा हो। इस दिशा में अभी शोध की काफी गुंजाइश है।
देवकलश-आप श्वेताम्बर उपकेश गच्छीय उपाध्याय देवकुमार, कर्मसागर, देवकलोल्ल के शिष्य थे। आपने सं० १५६९ में 'ऋषिदत्ता चउपइ ( ३०१ गाथा ) लिखी जिसमें ऋषिदत्ता का शील निरूपित किया गया है, कवि लिखता है-- " प्रबन्ध रिषिदत्ता करेउ, सीलतणउ नीपन उनवेरउ, छइ परगट संबन्ध । जे नरनारी भावई मणिसिइ, आंणीमन ऊलट नितु सुणिसिइ, भाव सकति
भरपूरि। सील का माहात्म्य बखानते हुए कवि आगे लिखता है
“सीलइ सुभमति ऊपजइ, भागउ टलइ कलंक, बीज तणइ दिनिनिर्मल उ, होइ जिसउ हरणंक । सीलइ वलि निश्चल मिलइ, उत्तम सिंउ संबन्ध,
सीलई रिषिदत्ता तणउ, भवियां सुणउ प्रबन्ध । शील का माहात्म्य बताकर शील का आदर्श स्वरूप रिषिदत्ता की कथा के माध्यम से कवि ने इस चउपइ में प्रकट किया है। कवि सजग लगता है कि उसका काव्य कोरा उपदेश परक और प्रचार प्रधान न हो जाय इसलिए अन्य जैन लेखकों की तरह इसने भी शील सम्बन्धी उपदेश को कथा के लोकप्रिय और आकर्षक आवरण में आवेष्ठित करके प्रस्तुत किया है । रिषिदत्ता का चरित्र जैन समाज में सुपरिचित और आकर्षक है। इस धार्मिक कथा के आधार पर लिखी इस कृति में कहीं कहीं सुन्दर काव्यत्व की झलक भी मिलती है । सिंहरथ राजा की रानी रिषिदत्ता ने अपने शीलधर्म के बल पर सिंहरथ के साथ भगवान शीतलनाथ की जन्मभूमि भद्दलपुर में निर्वाण प्राप्त किया। इसकी भाषा पर गुजराती को स्पष्ट छाप है, १. श्री अ० च० नाहटा--परम्परा पृ० ५८ २. श्री मो० द० देसाई-जे० गु० क० भाग १ पृ० १२० भाग ३ १० ५५४-५५५
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