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________________ २४ मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास को ही सर्वप्रथम और सर्वप्रधान भाषा बताया गया है किन्तु प्राकृत के वैयाकरणों ने महाराष्ट्री को प्रमुख प्राकृत बताया है । इसमें भी प्रचुर साहित्य उपलब्ध है । पद्यात्मक साहित्य सट्टक, नाटक आदि साहित्यरूपों में शौरसेनी में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है, गुणाढ्य की बृहतकथा पैशाची में मिली है किन्तु प्राकृत का सर्वाधिक सम्बन्ध जैन लेखकों से ही है । धर्म के आधार पर इस भाषा का जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी नामकरण इसके जैन धर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध का ही द्योतक है । जैन प्राकृत साहित्य की विशेषतायें जैन प्राकृत साहित्य की धारा अखंड और अटूट है । यह प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण में उपलब्ध है । इसका सातत्य कभी खंडित नहीं होता । यह प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के पश्चात् मरु गुर्जर में निरन्तर प्रवाहमान है । इसके प्रमुख रचनाकारों में विमलसूरि (पउमचरिय ३री शताब्दी), पादलिप्ताचार्य (५वीं शती, तरंगवती), संघदासगण ( वसुदेवहिंडी) आदि उल्लेखनीय हैं । साहित्यिक प्राकृत में प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों काव्यरूपों में प्रचुर साहित्य लिखा गया है । हालसातवाहन कृत गाथासप्तशती शृंगार रस की अनुपम कृति है । जयवल्लभकृत वज्जालग्ग, प्रवरसेनकृत सेतुबन्ध, वाक्पतिराजकृत गौड़वहो, कौतूहलकृत लीलावती आदि कुछ उल्लेखनीय प्राकृत रचनायें हैं । वरांगचरित, प्रबन्धचिन्तामणि आदि कुछ ग्रन्थों में प्राकृताभास संस्कृत मिश्रित एक विशेष भाषा-शैली पाई जाती हैं । प्राकृत-व्याकरणग्रन्थों में मागधी और महाराष्ट्री की तुलना में शौरसेन का विवेचन कम हुआ है किन्तु हिन्दी और उसकी प्रमुख बोलियोंव्रज, खड़ी तथा राजस्थानी से शौरसेनी का ही ज्यादा निकट का सम्बन्ध है । राजशेखर ने काव्यमीमांसा (१० वीं शती) में भाषाओं का क्षेत्र बताते हुए लिखा है कि मध्यदेश का कवि सर्वभाषाविद् होता है । कुरु प्रदेश से प्रयाग तक, पांचाल - शूरसेन और मरु तथा अवंती तक शौरसेनी का प्रचारप्रसार था । इसी शौरसेनी प्राकृत का विकास आगे चल कर शौरसेनी अपभ्रंश के रूप में हुआ जिससे हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती का या तो सीधे या किसी प्रादेशिक रूप से विकास हुआ है । चाहे शौरसेनी प्राकृत हो या अपभ्रंश हो इसका प्रचार-प्रसार व्यापक क्षेत्र में रहा । कहा जाता है कि द्वापर में श्री कृष्ण अपने तमाम यदुवंशियों के साथ मथुरा से द्वारका (गुजरात) जाकर बस गये थे, यदि यह आख्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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