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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
'बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणं ।
अनुग्रहार्थतत्त्वज्ञः सिद्धान्त प्राकृत कवः ॥1 कहा जाता है कि उक्त छन्द विक्रमादित्य के आश्रित विद्वान् तर्कवादी सिद्धसेन को लक्ष्य करके उसे वाद में पराजित करने वाले 'वद्धवादि ने कहा था और उन्हें जेन सिद्धान्त ग्रन्थों को संस्कृतबद्ध करने से विरत किया था वि० स० पूर्व छठी से पहली शताब्दी तक की प्राकृत भाषा का प्रकृतस्वरूप हम जनसूत्रा और जनागमो में उपलब्ध होता है। उस समय की मागधी, अद्धमागधी का ठीक परिचय प्राप्त करने के लिए जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय क सूत्र ग्रन्थो से अधिक प्रामाणिक अन्य कोई साधन नहीं है। कुछ सहायता बोद्ध पालि साहित्य और अशोक की धर्म लिपियों से भी मिल सकता ह किन्तु विक्रम संवत् की पहली शताब्दी से छठी शताब्दी तक की भाषाओ क ज्ञान के लिए पुनः हमें जैनाचार्यों की शौरसेनीमहाराष्ट्रा मिश्रित प्राकृत की रचनाओं का ही अवलम्बन लेना पड़ेगा। विक्रम की नवा स १२ वीं शती तक की जन भाषाओं का नाम अपभ्रश प्रचलित हा गया ओर इनका अध्ययन करने के लिए तो एकमात्र जन साहित्य हा सर्वाधिक प्रामाणिक स्रोत सिद्ध हो चका है। आचार्य कुन्दकुन्द, विमलसार (पउमचरिय), हरिभद्रसूरि (समराइच्चकहा), उद्योतन सार (कुवलयमालाकहा) आदि कुछ प्राचीन प्रामाणिक लेखकों की रचनायें तत्कालान भाषा का सही स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। इसीलिए डॉ० जेकोबी न लिखा ह 'जनाचायों ने प्राकृत को यदि न अपनाया होता तो इसका आज हम पता भी न चलता।"
मो० द० देसाई भी प्राकृत को संस्कृत का पूर्ववर्ती मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि हेमचन्द्र ने किसी आधार का अनुगमन करके 'प्रकृतिः संस्कृतम् तत्रभवं गत आगतं वा प्राकृतम्' अर्थात् प्राकृत का मूलाधार संस्कृत है और उससे जो उत्पन्न हुई या निकली वह प्राकृत है, यह लिख कर एक स्थायी भ्रम उत्पन्न कर दिया है। वस्तुतः संस्कृत शब्द स्वयं संस्कार का सूचक है। जनसाधारण की प्रकृत भाषा प्राकृत को संस्कारित करके शिक्षितों ने संस्कृत को साहित्य का माध्यम बनाया होगा । जैन सूत्रों में तो अर्धमागधी, मागधी १. श्री मो० द0 देसाई-गु० क० भाग १, प० २१ । 2. Had in not been for the Jainas, we would never have knowng, what "Prakrit Literature was'
उद्धृत-जे० गु० क०, भाग १ पृष्ठ १९..
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