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________________ २२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास की मागधी, बौद्ध ग्रन्थों की पालि, अशोक की धर्मलिपियों, ललितविस्तर की गाथाओं, शिलालेखों और सिक्कों में फैलती-फूलती मिलती है। जैनसूत्रों की भाषा को मागधी या अर्धमागधी प्राकृत कहा गया है। प्राकृत के अन्य कई प्रादेशिक रूप भी बताये गये हैं जैसे शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची आदि । बौद्धसाहित्य की पालि-प्राकृत में संस्कृत का सहारा अधिक लिया गया। इसी प्रकार की भाषा शिलालेखों और सिक्कों पर भी मिलती है अतः शुद्ध प्राकृत का नमूना जैन सूत्रों में ही प्राप्त होता है। संस्कृत नाटकों में यत्रतत्र जो सामान्य पात्रों द्वारा प्राकृत के संवाद कहलाये गये हैं श्री गुलेरी आदि विद्वानों ने उसे बनावटी बताया है। प्राकृत भाषा की प्रकृति को ठीक प्रकार से समझे बिना ही कुछ थोड़े से हेर-फेर करके संस्कृत के आधार पर ही प्राकृत का व्याकरण भी गढ़ा गया है। व्याकरणबद्ध होकर यह प्राकृत भी आगे चल कर केवल साहित्यिक भाषा के रूप में रूढ़ हो गई । वह पंडितों की शिष्ट भाषा बन गई जिसे बहुत मधुर ललित भाषा भी कहा गया है किन्तु वह जनता के बोलचाल की भाषा से कट गई थी। जैनाचार्यों ने प्राकृत में धर्म-ग्रन्थ एवं साहित्य-ग्रन्थ लिख कर इसे बड़ा सम्मान दिया। जैन साहित्य में प्राकृत डॉ० हीरालाल जैन का कथन है कि प्राकृत को शोध कर संस्कृत बनाई गई। आगे चलकर प्राकृत में जो साहित्य लिखा गया, उस पर संस्कृत का बहुत प्रभाव पड़ा किन्तु यह कहना ठीक नहीं है कि प्राकृत-संस्कृत से उत्पन्न हुई है। पाणिनि के समय विद्वानों पर संस्कृत का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे लोग अपने बोलचाल की भाषा की परवाह न करके हजारों वर्षों तक संस्कृत में ही पठन-पाठन एवं साहित्य सृजन करते रहे। कभी-कभी तो ये पंडितजन प्राकृत के प्रति अनादरपूर्वक यहाँ तक कह दिया करते थे कि 'भाषा रंडायाः किम् प्रयोजनम्', किन्तु आज से करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व बौद्ध और जैन समाज ने इसमें साहित्य-सृजन प्रारम्भ किया। जैनाचार्यों ने प्राकृत को धर्म-प्रचार का वाहन बना कर इसमें प्रचुर साहित्य लिखा। प्राकृत का प्रकृत रूप इन्हीं रचनाओं में सुरक्षित है । वे बनावटी प्राकृत के स्थान पर बोलचाल की प्राकृत को अधिक महत्त्व देते थे। उनका प्राकृत के प्रति विशेष उत्साह इसलिए था कि वह आम जनता के बोलचाल की भाषा थी जिसे बाल, स्त्री, मन्द सभी समझ सकते थे १. हीरालाल जैन-जैन साहित्य में हिन्दी की जड़, प्रथम भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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