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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
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मरु- गुर्जर के स्वतन्त्र विकास का कारण - वि० सं० की १२वीं शताब्दी के बाद अपभ्रंशों से देशी भाषाओं का अलग-अलग विकास प्रारम्भ हो गया । हेमचन्द्रसूरि के स्वर्गवास के कुछ ही दशकों पश्चात् भारत में राजनीतिक उथल पुथल प्रारम्भ हो गयी । राष्ट्रीयस्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गया । मुस्लिम आक्रमणों के फलस्वरूप विभिन्न प्रदेशों का पारम्परिक सम्बन्ध छिन्न-भिन्न हो गया । जनता का पारस्परिक मिलना-जुलना, अन्तप्रान्तीय व्यापार-कारोबार क्रमशः कम होने लगा । इसलिए अलग-अलग प्रदेशों की राजनीतिक सीमा के भीतर वहाँ की जनभाषाओं का एकान्तिक विकास प्रारम्भ हो गया ।
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में तत्कालीन भाषा के पद्यों का नमुना दिया है । उनको देखकर हम तत्कालीन भाषा का स्वरूप जान सकते हैं; एक दोहा उदाहरणस्वरूप यहाँ दिया जा रहा है
विट्टीए मइ भणिय तुहुँ मां कुरु बंकी दिट्ठि । दुति सकण्णी मल्लि जिव मारइ हियइ पइट्ठि ।'
इसमें अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी सभी के पूर्वरूप ढूँढ़ जा सकते हैं । यह विकास प्रक्रिया १५वीं शताब्दी तक अपना चक्र पूराकर लेती है और राजस्थानी, गुजराती तथा हिन्दी के नये शब्दरूप प्रयोग सामने आ जाते हैं जैसे प्राचीन रूप अइ, अउ के स्थान पर नवीन रूप ऐ, औ प्रतिष्ठित हो गये थे । इसका भाषावैज्ञानिक दृष्टि से संक्षिप्त परिचय हम आगे प्रस्तुत करेंगे ।
मरु-गुर्जर की उत्पत्ति का इतिवृत्त हृदयंगम करने के लिए हमें इससे दो पीढ़ी पहले की पूर्वज भाषाओं से परिचित होना पड़ेगा। उत्तरभारत की आर्यभाषा-परम्परा में सबसे प्राचीन भाषा वैदिकछान्दस् की भाषा मानी जाती है । इसका प्रवाह प्राकृत भाषाओं में गतिमान रहा किन्तु संस्कृत में आकर पाणिनि के व्याकरण द्वारा वह प्रवाह मर्यादित हो गया । वैदिक भाषा में देवाः और देवासः दोनों रूप मिलते हैं किन्तु संस्कृत ( लौकिक ) में केवल देवाः स्थिर हो गया । इसी प्रकार अधिकरण स्मिन् संस्कृत के सर्वनाम तक सीमित हो गया किन्तु प्राकृत में 'म्मि', 'म्हि' से होता हुआ हिन्दी के में और गुजराती के मां तक पहुँचा है ।
प्राकृत
जैसा पूर्वोल्लिखित है कि ऋग्वेद में छान्दस् भाषा के साथ प्राकृत रूप भी प्राप्त होते हैं । ऋग्वेद से प्रारम्भ होकर इनकी परम्परा जैनसूत्रों
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