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________________ २० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास साहित्य के लिए बड़ा अनुकूल अवसर प्राप्त हुआ। यदि स्वयंभू . और पुष्प. दंत राष्ट्रकटों की छत्रछाया में पनपे तो हेमचन्द्र को सोलंकी, सिद्धराज और कुमारपाल का राज्याश्रय प्राप्त हुआ। इस प्रकार राज्याश्रय और धर्माश्रय में मरु-गुर्जर जैन साहित्य का लेखन और संरक्षण बड़े यत्नपूर्वक पूज्यभाव से किया गया । यही कारण है कि इसका प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण का क्रमबद्ध साहित्य अपने मूलरूप में सुरक्षित मिलता है जिसके आधार पर देश-भाषाओं का विकास और अपनी संस्कृति के विभिन्न आयामों-साहित्य, धर्म, दर्शन एवं रीति-रिवाज-आदि का अध्ययन हम सुविधापूर्वक कर सकते हैं। इस भाषा में लिखा हुआ विशाल साहित्य विविध काव्यरूपों में प्राप्त होता है जिसकी प्रशंसा पं0 मदनमोहन मालवीय, विश्वकवि रवि ठाकुर और डा० सुनीति कुमार चाटुा आदि मनीषियों ने किया है। ग्रियर्सन ने इसकी प्रशंसा में कहा था कि इसमें विपुल ऐतिहासिक महत्त्व का साहित्य भरा पड़ा है। ___ मरु-गर्जर का उद्भव-जैन विद्वानों का लक्ष्य धर्म को जनसाधारण तक पहुँचाना था अतः उन्होंने साहित्य का माध्यम प्राकृत एवं अपभ्रंश और उसके पश्चात् मरु-गर्जर को बनाया । आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास अपने-अपने क्षेत्र में अपभ्रंशों से ही हुआ माना जाता है। अपभ्रश भाषा १२वीं शताब्दी के बाद देशभाषाओं के रूप में परिवर्तित होने लगी थी। वि० सं० ८६५ में जालौर में जैनाचार्य उद्योतनसूरि ने 'कुवलयमाला' नामक ग्रन्थ लिखा और १६ प्रादेशिक भाषा-भेद बताये। इससे प्रकट होता है कि ९वीं-१०वीं शताब्दी से ही प्रादेशिक भेद उल्लेखनीय हो गये थे, फिर भी यह निर्णय करना कठिन है कि अपभ्रंश कहाँ समाप्त हई और पुरानी हिन्दी, मरु-गुर्जर कहाँ से प्रारम्भ हुई । अनेक ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं जिन्हें अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी या मरु-गुर्जर का उदाहरण भी माना जा सकता है। संस्कृत ग्रन्थों में उद्ध त होने के कारण इनके मूलस्वरूप की बहुत कुछ सुरक्षा हो सकी अन्यथा मुख-सुख के लिए बदलतेबदलते इनका ऐसा रूप बन जाता कि इनके प्राचीन मूलरूप को जानना असम्भव हो जाता जैसे संस्कृत का 'उत्पद्यते' शब्द प्राकृत में उप्पजइ और विसते-घिसते मरु-गजर में 'उप्पजए' हो गया। इस 'उप्पजइ' को अपभ्रश और पुरानी हिन्दी, मरु-गर्जर का रूप आसानी से घोषित किया जा सकता है जिससे हिन्दी 'उपजै' और गुजराती 'उपजे' रूप इस समय पर चल रहा है। 1. There is enormous mass of literature in various forms in Rajas thani of considerable historical importance-G. A. Grierson. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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