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________________ मरु-गुर्जर को निरुक्ति १९ इस साहित्य द्वारा हम राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी का सही विकास-क्रम जान सकते हैं | हिन्दीप्रदेश में हिन्दू नरेशों के संरक्षण में प्रायः संस्कृत में जो साहित्य लिखा गया वह मुस्लिम आक्रमण के समय नष्ट हो गया किन्तु जैन शास्त्र भांडारों में प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक दशक की प्राचीनतम प्रतियाँ सुरक्षित बच सकी हैं । इसलिए इनके आधार पर विभिन्न स्थानों में समय-समय पर ज्यों-ज्यों भाषा - बोलियों का क्रमिक विकास हुआ उसकी सटीक जानकारी प्राप्त हो जाती है, जबकि अन्य साहित्य की उतनी प्राचीन एवं प्रामाणिक प्रतियाँ उपलब्ध न होने के कारण मूलग्रन्थ के वास्तविक पाठ और उसकी भाषा का मूल स्वरूप निर्धारित करना कठिन है । कोई भाषा और साहित्य तीन प्रकार से सुरक्षित रह सकता है, ( १ ) राज्याश्रय, (२) धर्माश्रय और ( ३ ) जनाश्रय द्वारा । तत्कालीन हिन्दी प्रदेश में हिन्दी को न राज्याश्रय और न धर्माश्रय प्राप्त था; उसे केवल जनाश्रय पर रहना पड़ा । अतः मध्यदेश या हिन्दीभाषी प्रदेशों का तत्कालीन प्रामाणिक साहित्य बहुत कम उपलब्ध है, जबकि धर्माश्रय और राज्याश्रय के कारण मरु-गुर्जर साहित्य प्रभूत मात्रा में और अविकृत रूप में सन्, संवत्वार उपलब्ध है | हिन्दी क्षेत्र पर उन दिनों गहड़वालों का आधिपत्य था. वे इस क्ष ेत्र के बाहर से आये थे; यहाँ की भाषा-बोली से प्रारम्भ में उनका लगाव कम था । उन्होंने संस्कृत कवियों को प्रश्रय दिया । बाद में जब दामोदर भट्ट जैसे भाषाकवियों का आदर शुरू हुआ तभी उनका शासन समाप्त करके मुसलमानों ने सत्ता हथिया ली । दूसरी ओर राष्ट्रकूट, परमार, सोलंकी राजा गुजरात, मालवा और राजस्थान में लगातार अपनी भाषा और साहित्य को संरक्षण देते रहे । जैन धर्माचार्यों ने भी देशभाषा को विकसित - संवर्धित करने में अनुपम योगदान दिया । इसलिए मरु-गुर्जर की कहानी अन्य देशी भाषाओं की कहानी से सर्वथा भिन्न है । गुजरात और राजस्थान में जैनधर्म और जैन साहित्य को पनपने फैलने का सुअवसर राज्याश्रय के कारण मिला । मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजाओं के मंत्री प्रायः जैन श्र ेष्ठि श्रावक हुआ करते थे । इनके यहां जैन मुनियों और कवियों का सम्मान होता था । बरार में जैनवैश्यों की बहुलता थी । उन्होंने अपभ्रंश और मरु-गुर्जर के प्रचारप्रसार का भरसक प्रयत्न किया । जब राष्ट्रकूटों का पतन हुआ तो गुजरात में सोलंकी शासकों के राज्यकाल में जैनधर्म और देशीभाषा में लिखित जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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