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________________ २५ मरु-गुर्जर की निरुक्ति सत्य हो तो शूरसेन से गुजरात की संस्कृति और भाषा में एक सीमा तक अवश्य घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिये। इस प्राचीन आधार के अतिरिक्त आगे चल कर १६ वीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप एक बार पुनः व्रजभूमि की भाषा वल्लभ सम्प्रदाय के साथ राजस्थान व गुजरात तक 'फैली। परिणामतः मथुरा से गुजरात तक कृष्णभक्तिकाव्य का एकमात्र माध्यम व्रजभाषा हो गई जो थोड़े बहुत हेर-फेरके साथ स्थानीय भाषाओं के साथ दीर्घ कालतक प्रयुक्त होती रही। इसप्रकार प्राचीन काल से लेकर १५वा १६ वीं शताब्दी तक सम्पूर्ण मध्यदेश से लेकर राजस्थान, गुजरात तक की साहित्य भाषा या तो शौरसेनी प्राकृत रही या शौरसेनी अपभ्रंश रही अथवा आगे चल कर पूरानी हिन्दी या मरु-गुर्जर हो गई जिसे स्थानीय भेद और शैली के आधार पर डिंगल, पिंगल, अवहट्ट आदि नाम भी दिये गये हैं। प्राकृतों का समय वि० की ६ ठीं शताब्दी तक समाप्त माना जाता है । उसके बाद उसका परिवर्तित-विकसित रूप अपभ्रंश के नाम से प्रचलित हुआ। इसके भी कई स्थानीय भेद थे। इन्हीं से मरु-गुर्जर और हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती का विकास हआ है, अतः अपभ्रंश के सम्बन्ध में थोड़ा अधिक ध्यानपूर्वक विचार की आवश्यकता है । अपभ्रंश अपभ्रंश का शब्दार्थ और इतिहास अपभ्रंश शब्द का अर्थ है भ्रष्ट, बिगड़ी या विकृत। इस अर्थ में इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग व्याकरण महाभाष्य के रचयिता पतंजलि ने ई० पू० दूसरी शताब्दी में किया है, "एकैकस्यहि शब्दस्य वहवोऽपभ्रंश तद्यथा। गौरिन्यस्य शब्दस्य गावी, गोवी, गोता, गापोतालिके त्येवमादयोऽपभ्रंशाः।" यहाँ अपभ्रंश शब्द का प्रयोग भाषा के अर्थ में नहीं है बल्कि मूल भाषा में विकृति या भ्रष्टता का सुचक है। डॉ० नामवर सिंह ने बताया है कि पतंजलि से भी पूर्व इस शब्द का प्रयोग भतहरि ने 'वाक्यपदीयम्' में किया है। इसी अर्थ में भरत ने (२ री शती) में विभ्रंश या विभ्रष्ट शब्द का प्रयोग किया है किन्तु आगे उन्होंने 'आभीरोक्तिः शाबरी वा द्राविडादिषु' कह कर आभीरोक्त विभाषा का भी संकेत किया है। उन्होंने इसका लक्षण और क्षेत्र भी बताया है । 'हिमवत् सिंधु सौवीरान्ये च देशाः समाश्रिताः, उकार बहुलां तज्झस्तेषु भाषां प्रयोजयेत् ।' यह उकार बहुला आभीरों की विभाषा हिमवत् सिन्धु सौवीर से बढ़ कर आगे चल कर अपभ्रंश भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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