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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
३९१ इसमें एक-एक इन्द्रिय की वासना और तज्जन्य दुःख को उदाहरण द्वारा समझाया गया है जैसे स्पर्शेन्द्रिय के उदाहरण स्वरूप कामातुर हाथी का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है :
'वन तरुवर फल खातु फिरि पय पीवतो सुछंद, परसण इन्द्री प्ररियो, बह दुख सहै गयन्द । बहु दुख सहै गयन्दो, तसु हो गई मति मंदो,
कागज के कुजर काजे, पडि खांड सक्यौ न भाजे ।'' इसी प्रकार रसनेन्द्रिय ‘इह रसना के रस ताइ, नर मुसै बाप गुरु भाई ।' आदि जीवन्त वर्णनों-उदाहरणों द्वारा विषयासक्ति के प्रति उदासीनता उत्पन्न करने का उत्तम प्रयत्न किया है। पांच प्रतीकों द्वारा मानव को चेतावनी देता हुआ कवि कहता है
'अलि, गज, मीन, पतंग, मृग एके कहि दुख दीघ ।
जर इति भो भो जिहि वसि पंच न किद्ध ।' सीमंधर स्तवन-इसमें कुल ३ छप्पय हैं जिनके अन्त में ठकुरसी की छाप है। चिन्तामणि जयमाला की भाषा पर अपभ्रंश का कुछ प्रभाव है; यथा'इय वर जयमाला गुणह विसाला घेल्ह सुतनु ठाकुर कहए, जो णरु सिरि सिक्खइ दिणि रिणि अक्खइ सो सुहं मणवं छिउ लहए ।१२। कृपणछंद-३५ छंदों की विनोदपूर्ण रचना है जिसमें एक कृपण और उसकी पत्नी की हास्य विनोदपूर्ण कथा है । इसका प्रारम्भ देखिये :
क्रिपणु एकु परसिद्ध नयर निवसंति विलक्षण,
कही करम संजोग तासु धरि नारि विचक्खण ।' इसका ३५वां छन्द देखिये :
कहि कहै ठकुरसी लभणु मै परमत्थु विचारयो,
चरमियों त्याह उपज्यो जनमु जा याच्यो तिह हारियो।' पार्श्वनाथसकुनसत्तावीसी का रचनाकाल कवि ने इस प्रकार बताया है :'घेल्ह णंदणु ठकुरसी नाम, जिण पाय पंकय भसलु तेण पास
__थुपकिय सचो जवि। पंदरासय अठ्ठतरई माह मासि सिय पख दुइजवि । १. डा० क० च० कासलीवाल-बू० स० कवि, पृ० २४४.२४७
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