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________________ ३८० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसके प्रथम और द्वितीय खंड में ९३, तृतीय में ७३, चतुर्थ में ४८ औरपंचमखंड में ११२ छंद हैं। श्री मो० द० देसाई का अनुमान है कि जिणहर का अर्थ जिनगृह है, यह किसी कवि का नाम नहीं है। इनके विचार से इस रचना का कवि अज्ञात है। इस सम्बन्ध में यह पंक्ति विचारणीय है : 'गुरु कहें काम नहि धनें, विक्रम कहिं से आप्यु मनें, तेणे घने ने कराव्यु सिंध, ऊंकारपुरे जिणहर रंगि ।११०॥ इस पंक्ति में जिणहर शब्द कवि के नाम के रूप में प्रयुक्त नहीं प्रतीत होता है । इस रास में मालवा के राजा विक्रमादित्य का वृत्तान्त वणित है। रास की प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं : 'जयु जयु पास जीराउलउ जगमंडण जिनचंद, जास पसाइं पामीइ नितुनितुपरमाणंद । वरकाणइ जाणइ सहू त्रेवीसमउ जिणेस, जेहतणी सहूइ, बहइ आणजिसी परिसेस । पाल्हणपुरवर मंडणऊ वाजा देवि मल्हार, पासनाम पुहवी तिलउ सीद्धउ पाल्ह विहार।' रचनाकाल का निर्देश करता हुआ कवि कहता है: 'विक्रमना गुण हिअउइ धरी, पंचदंड छत्रहनुचरी, पनर छपन्नह मासि वैशाखि, कीधु वीजइ धुलइ पाखि ।' (ब्रह्म) जीवंधर-आप भ० सोमकीति के प्रशिष्य एवं यशःकीति के शिष्य थे। सोमकीर्ति काष्ठासंघ की नन्दीतट शाखा के सन्त थे। सं० १५१८ में रचित एक ऐतिहासिक पट्टावली में इन्होंने अपने आपको काष्ठासंघ का ८७ वाँ भट्टारक लिखा है। आप अच्छे लेखक थे। आपने प्रद्युम्नचरित (सं० १५३१), सप्तव्यसन कथा (१५२६) आदि रचनायें की हैं, इस आधार पर जीवंधर का समय १६वीं शती का अन्तिम चरण होना चाहिये । इनकी अबतक एक ही कृति 'गुणठाणा वेलि' प्राप्त हो पाई है। इसमें कुल २८ छन्द हैं । इसकी भाषा शैली के नमूने के रूप में अन्तिम छन्द उद्धृत किया जा रहा है : 'चौदि गुणठाणां सुण्या जे भण्या श्री जिनराइजी, सुरनर विद्याधर सभा पूजीय वंदीय पाय जी, १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु०क० भाग १ पृ० ९९-१०० और भाग ३पृ० ५२५-२६ २. वही ३. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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