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३८६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भी उल्लेख श्री देसाई ने किया है किन्तु इन रचनाओं का विवरण/उद्धरण प्राप्त नहीं है।
जिनसाधुसूरि-आप बृहद् तपागच्छीय जिनरत्नसूरि के पट्टधर थे । आपने सं० १५५० के आसपास 'भरत बाहुबलि रास' की रचना की। इसकी प्रतिलिपि स्वयं लेखक ने की है। रचना का प्रारम्भ इस प्रकार है :
'भट्ट आदि जिणेसरस्स सयलं, सोहग्ग लच्छी करं, सुखं कवकिल सामीउं, पयदिणं देविदवदी पद्यं । श्री सिद्धत निवासिणी सरसइ निच्चं फुरं माणसे,
संतुठा जिनरयण सूरि गुरुणो पाया सदामों सुहं ॥" इस रास में भरत चक्रवर्ती और बाहुबली की प्रसिद्ध कथा ३२३ पद्यों में वर्णित है । इसकी भाषा में अपभ्रंश की झलक कहीं-कहीं मिल जाती है । इसलिए यह तत्कालीन बोलचाल की भाषा का नहीं बल्कि रूढ़ काव्यभाषा का प्रतिनिधित्व करती है। रचना की अन्तिम पंक्तियों में रचना सम्बन्धी कुछ सूचनायें हैं-यथा,
'पूरवरुओं नयर समद्ध सहआला पूरु मंडाण, जिनवरु श्री नेमीस दुरित तमोभर खंडणुओ। तेह तण लहीय पसाउ रचिउरास जय जय गुरु,
पंडित वरु श्री साधुकीति पय प्रणमी गुणसागरु।' अन्त में भरत को सिद्धि प्राप्त हई, कवि कहता है :--
'ऊहापोह विचारतां भरत राऊ श्री ज्ञानिवरीउ, जिन शासनि जयवन्त चिर साधु वेष सुरदत्त धरीउं । पढ़म चक्काहिव श्री भरत क्रमि क्रमि पामिउ सिद्धि,
श्री जिनसाधु सूरीरस कहइ भणंता उच्छव रिद्धि ।३००। देवी सरस्वती की वन्दना में भाषा सम्बन्धी रूढ़ि निर्वाह का उदाहरण देखिये :
'नीयमणि सेवक संभारत्तीय, मणवंछित देवइं भारत्तीय,
कर जोड़ी मांगू भारत्तीय सामझ वपणि वसु भारत्तीय ।। आ० जिनसेन-आप भ० यशःकीर्ति के शिष्य थे। आपकी एक कृति 'नेमिनाथ रास' उपलब्ध है जो सं० १५५८ में जवाछ नगर में लिखी गई १. श्री मो० द० देसाई-जे० ग० क० भाग ३ पृ० ५१९-५२० २. वही भाग ३ पृ० ५१९-५२० ३. वही
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