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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास __ जैनधर्म आत्मा की अनन्त शक्ति में विश्वास करता है । उसकी मान्यता है कि कर्मों का तपद्वारा क्षय करके आत्मा परमात्मा बन सकता है। इसलिए ऐसे तपःपूत चरित्रों पर आधारित रास लिखने की प्रथा चल पड़ी है। इन रासों में नाना प्रकार के वर्णनों, लौकिक, अलौकिक पात्रों, घटनाओं और कथानक रूढ़ियों के साथ सभी रसों का यथावसर उपयोग किया जाता है। शान्तरस को सर्वोपरि स्थान दिया जाता है क्योंकि साधक के लिए यही रस हितकर कहा गया है।
'यत्र न सुखं न दुखं न द्वषो नपि मत्सरः,
समः सर्वभूतेषु स शांतः प्रथितोरसः ।' अतः इन काव्य रचनाओं के पूर्वार्द्ध का राग उत्तरार्ध में पहुंचकर वैराग्य में बदल जाता है। आदिनाथ को नीलांजना की मृत्यु देखकर, अजितनाथ को उल्कापात देखकर, नेमिनाथ को पशुओं का क्रन्दन सुनकर वैराग्य होता है । इसी प्रकार सभी रासों में कथा का आयोजन किया गया है।
भाषा-आपका मुख्य क्षेत्र राजस्थान गुजरात का सीमावर्ती स्थान ईडर, डूगरपुर, बांसवाड़ा और बागड़ प्रान्त था । यहाँ की भाषा मरुगुर्जर थी। हिन्दी या पुरानी हिन्दी में राजस्थानी के साथ गुजराती के शब्द अपनाये जा रहे थे इसका प्रमाण ब्रह्म जिनदास और बागड़ प्रदेश के अन्य जैन कवियों की रचनाओं में मिलता है। मरुगुर्जर या पुरानी हिन्दी उस क्षेत्र की लोकभाषा थी, अतः जन सामान्य के हित के लिए सरल जनभाषा में रचना करना इनका लक्ष्य था। उन्होंने आदिनाथ रास में भाषा के सम्बन्ध में स्वयं लिखा है :
'कठिन नालीय ने दीजि बालक हाथि, ते स्वाद न जाणे, छोल्या केल्यां द्राख दीजे, ते गुण बहु माने । तीम ए आदि पूराणसार देसभाषा बखाण, प्रगट गुण जीम विस्तरे जिण सासण बखाणु।' देस भाषा के प्रति अनुराग होने पर भी संस्कृत के विद्वान् होने के कारण ये तत्सम प्रयोगों से बच नहीं पाये हैं । यथा --अज्ञान तिमिरहर ज्ञान दिवाकर, पढ़इ गुणइ जे ज्ञान धणी,
ब्रह्म जिणदास भासे विबुध प्रकासे मन वंछित बल बुद्धि धणी।
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