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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'ए संसार असार गुण हीण, करम वंध जीव जो मरीण । जामण मरण जरा दुख घणा, सजन वीयोग संजोग नहीं मणा ।। 'श्री आदि जिणेसर आदि जिणेसर पाय प्रणमेसु.
सरसति स्वामिणी बलि तव बुद्धि सारहुं मागु निरमल' नीलजंना के निधन पर आदिनाथ को वैराग्य हुआ, कवि लिखता है :
'भमरी दीन्हीं तिहां रुवडी, अपछरा तीणवार, आपू छटो तीहां जीव गयो धरणि पडि निरधार । सेवा नीमवी घटी गइ अदिष्ट हुई खीण माहि,
सभा सयल आणंद हुवो एक एक मुख चाहि । रास की अन्तिम पंक्तियां देखिये :
श्री सकलकीरति गुरु प्रणमीनि भुवनकीरति भवतार,
ब्रह्म जिनदास कहे सार निरमलो रास कियो मे सार ।'3 इनकी ७० रचनाओं का परिचय देने के लिए स्वतन्त्र ग्रन्थ की आवश्यकता होगी इसलिए दो चार विशेष उद्धरण आगे प्रस्तुत किए जायेंगे।
रामरास-आठवें बलभद्र मर्यादा पुरुषोत्तम राम के उज्ज्वल चरित्र पर आधारित ब्रह्मजिनदास का यह सबसे बड़ा रास ग्रन्थ है। आदिनाथ को पारने के समय इक्षरस पान कराने के कारण इनके वंश का नाम इक्ष्वाकु वंश पड़ा। इस वंश के राजा दशरथ के पुत्र राम की कथा और उनकी जैनधर्म के प्रति आस्था इस बृहद् रास का विषय है । इसका मंगलाचरण इस प्रकार हुआ है :'वीर जिणवर वीर जिणवर पांय प्रणमेसु, सरसति स्वामिणी वली त,
हवे बुद्धिसार हु वेगि मांगउ । सीता द्वारा राम के वरण के अवसर पर कवि कहता है :
'सीता मन आनंदीयो कंठि डाली वरमाल,
चंद्र रोहिणी जिमसोहिया मोहिया ते गुणमाल । रास की अन्तिम पंक्तियां देखिये :'रास कीयो रास कीयो अतिमनोहर, अनेक कथा गुणि आगलो राम
तणो सुणो सार निरमल । १. डॉ० प्रेमचन्द रॉवका-महाकवि ब्रह्म जिनदास पृ० ३८ २. वही, पृ० ३६५
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