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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पाओ लागीनई वीनवु अ दिउ मुझ मति माडी,
चित्रकोट नयरह तणी ओ रचउ चैत्य प्रवाडी।' इस रचना की अन्तिम पंक्तियाँ निम्नांकित हैं :-- "सिरि तवगछ नायक सिव सुखदायक हेमविमल सूरिंदवरा, तासु सीस सुखाकर गुणमणि आगर लबधि मूरति पंडित प्रवरा । जय हेम पंडितवर विद्या सुरगुरु सेवीजइ अनुदिन चरण, सेवकगन बोलइ अमिअह तोलइ हरषिइं हरष सुहकरण ।४३।
भाषा की दृष्टि से प्रस्तुत रचना प्रौढ़ प्रतीत होती है, वस्तुतः प्रवाडी (परिपाटी) स्तोत्र, स्तवन आदि की भाषा और शैली अब तक स्थिर हो चली थी, अतः इस प्रकार की प्रायः सभी रचनाओं में एक जैसी लय प्रधान भाषा शैली का प्रयोग मिलता है।
__ भट्टारक जिनचन्द्र-आप इस शताब्दी के एक प्रसिद्ध दिगम्बर जैन सन्त थे। आपकी भट्टारक गद्दी दिल्ली में थी लेकिन आप वहाँ से सम्पूर्ण राजस्थान का भ्रमण करते और साहित्य तथा संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते थें। आपके गुरु का नाम शुभचन्द्र था। सं० १५०७ में भ० शुभचन्द्र के स्वर्गवास के पश्चात् उनकी गद्दी पर आपका पट्टाभिषेक बड़ी धूमधाम के साथ हुआ था।
आपके पिता वधेरवाल जाति के श्रावक थे। इन्होंने १२ वर्ष की अवस्था में गृहत्याग कर भ० शुभचन्द्र की शिष्यता स्वीकार की और खूब शास्त्राभ्यास किया। इन्होंने स्वयं पुस्तकें लिखीं और अन्य पुस्तकों की प्रतियाँ लिखवाई तथा उनकी सुरक्षा का सुन्दर प्रबन्ध किया। __आपकी लिखी हुई दो रचनायें-'सिद्धान्तसार और जिन चतुर्विंशति स्तोत्र' प्राप्त हैं जिसमें से प्रथम तो प्राकृत का ग्रन्थ है और स्तोत्र संस्कृत की रचना है जिसमें २४ तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है। इस प्रकार अब तक इनकी लिखी मरुगुर्जर की कोई रचना प्राप्त नहीं हो सकी है। किन्तु इन्होंने जैन साहित्य की श्रीवृद्धि और धर्म की प्रभावना के लिए बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है।
ब्रह्मजिनदास-आप प्रसिद्ध भट्टारक सकलकीति के अनुज और शिष्य थे। आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर शोध करने वाले विद्वान् डॉ० प्रेमचन्द रॉवका ने आपका समय वि० सं० १४५० से १५३० तक निश्चित किया १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० कवि भाग ३ पृ० ६३७ २. वही
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