________________
३७६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्रीवर्धन किया है। उद्ध त उदाहरणों से स्पष्ट हुआ होगा कि आपका मरु. गुर्जर भाषा पर अच्छा अधिकार था। इनकी रचनाओं में काव्यत्व औसत दर्जे का है, किन्तु विस्तार अधिक है ।
जयविजय - तपागच्छीय आचार्य हेमविमल सूरि के आप प्रशिष्य और आनन्द विमल सूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५६४ में 'मुनिपति चौ०' वरकाणा में लिखा । इस रचना में मुनिपति का चरित्र और आचार आवश्यक-भाष्य के आधार पर वणित है। कवि ने लिखा है :
"श्री आवश्यक नइ आधार, मुनिवइ चरीय रचिऊ विचार ।'
इसमें रचना सम्बन्धी सभी आवश्यक विवरण उपलब्ध हैं। गुरुपरम्परा के सम्बन्ध में कवि ने लिखा है, यथा
"भणइ गुणइ नइ जे साभलइ, तेह तणइ मनवंछित फलइ । तपागछ श्री गुरुउदयवंत, श्री हेमविमल सुरजयवंत । "सीस सरोमणि अति उदयवंत, पंडित आणंद शुभ गुणवंत,
तस पसाय अह चरित्र, मणिपति के रु पून्य पवित्र ।" रचनाकाल- "पनरह सइ चउसठ समइ, आसोमास माहा अमी अमइ,
दसमीनउ देन गुरुवार चन्द्रधनेसुरी ने आधार ।"
स्थान- 'वारिकाणि वारु मति दीध, तऊ परिपूर्ण हुई संमध ।' अन्तिम पंक्तियों में कवि ने अपना नाम इस प्रकार दिया है
"जे भणइ भवीयण सूणउ, श्रवणइ गुणइ गाढ़इ गाजतइ, ते लहे लछी फलइ अ वंछीति, 'जयवेजय' वधावतइ ।२३।"
मनियों के संयमपूर्ण आचार-व्यवहार का विधि-विधान करने वाली इस उपदेशपरक रचना में स्वभावतः काव्यसौष्ठव की तरफ कवि का ध्यान नहीं रहा है अतः इसे साम्प्रदायिक साहित्य ही समझना चाहिये। इसकी भाषा में हिन्दी प्रयोग की बहुलता इस बात का प्रमाण है कि १६वीं शती में भी हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती में अधिक भाषागत वैषम्य नहीं था।
जयानन्द-आपकी रचना 'ढोला मारु की वार्ता-दोहाबद्ध' (४४२ दूहा) राजस्थान की अत्यन्त लोकप्रिय प्रेमकथा ढोलामारु पर आधारित है। इसका रचनाकाल सं० १५३० वैशाख वदी गुरुवार है। रचना के कुछ प्रारम्भिक दोहे भाषा एवं भाव के नमूने के रूप में उद्धृत किए जा रहे हैं:-- १. श्री मो० द० देसाई.-जै• गु० कवि भाग ३ पृ० ५४२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org