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३९७४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
जयराज-आप पौणिमा गच्छीय मुनिचन्द्र सुरि के शिष्य थे। आपकी सिद्ध रचना 'मत्स्योदर रास' सं० १५५३ में लिखी गई। रास के प्रारम्भ कवि ने अरिहंत और सरस्वती की वंदना की है, यथा :
'देव अरिहंत देव अरिहंत सिद्ध प्रणमेवि । आचारिज उवझाय सवि. नमु साधु सरसति सामिणि । कवियण जण मुख मंडणी, देइ बुद्धि वर हंसगामिनी, मच्छोदर सुख पामीआ, पुण्य तणइ प्रमाणि ।
दुःख पाम्या ते सांभलु अंतराय फल जाणि ।। रास के अन्त में कवि ने गुरु परम्परा और रचनाकाल का उल्लेख किया है, यथा :-- _ 'पूनिम गच्छि मुनिचन्द्रसूरि राज, तासु सीस जंपइ जइराज
पनर त्रिपन्न कीधु रास, भणइ गुणइ तेह परि आस ।'2 मुनिचन्द्रसूरि भीमपल्लीय पूर्णिमागच्छ में चारित्रसुन्दरसूरि के पट्टधर थे। इनके धातु प्रतिमा-लेखों से इनका समय १६वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है । इस रास में पूर्वार्द्ध तक चौपइ छन्द का ही प्रयोग किया गया है। भाषा मरुगूर्जर है। भाषा और अभिव्यञ्जना शैली के नमूने के तौर पर अंतिम चार पंक्तियां उद्धृत की जा रही हैं :
ओ रास भणइसिइ कानि सुणिसिइ पुण्यना फल जाणिसिइ । धनदि कीधां धर्मकारणि अंतराइ टालसिइं। चुपइ नइ वंधइ कीधु रास मत्स्योदर तण,
हर्ष ऊलट हीइ आणि, भवीय एक मनां सुणु ।१६१। श्री जयवल्लभ-पूर्णिमागच्छीय आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि आपके गुरु थे। आपने सं० १५७७ में 'श्रावकवत रास' (५९ कड़ी); स्थूलभद्र वासठीओ (६३ गाथा), 'धन्ना अणगारनो रास' और 'नेमि परमानन्द बेलि' नामक काव्य कृतियाँ लिखीं । इनका परिचय आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।
'श्रावक व्रत रास' या गृही धर्म रास का विषय तो उसके नाम से ही स्पष्ट है । इसका मंगलाचरण इस प्रकार प्रारम्भ हुआ है :
"पणमीय वीर जिणंद देव समरीय गुरु गोयम,
पभणिस समकित मूलसार श्रावक व्रत इम । १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० कवि भाग १ पृ० ९४ २. वही, भाग ३ पृ० ५२३ ।
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