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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इनके पिता श्री नाथू जी नाल्डिंग वंशीय अग्रवाल थे । बावनी में उन्होंने इसका उल्लेख किया है, यथा 'नाल्हिग वंशि नाथ सुतनु अगरवाल कुल प्रगट रवि, बावनी वसुधा विस्तरी कवि कंकण छीहल कवि।' ५३ । इनकी छह रचनाओं का विवरण प्राप्त है-(१) पंचसहेलीगीत, (२) बावनी, (३) पंथीगीत, (४) बेलिगीत, (५) वैराग्यगीत और (६) गीत । पंचसहेली कवि के युवावस्था की अत्यन्त शृङ्गाररसपूर्ण सरस रचना है। इसमें पाँच सहेलियाँ जो मालिन, छीपन, सोनारिन, तम्बोलिन और कला. लिन जाति की हैं, अपनी दुःख कथा परस्पर एक दूसरे से कहती हैं । न वे गाती-नाचती हैं, न बातें करती हैं, न नैनों में काजल, न मुख में तम्बोल, न गले में हार, न कोई शृङ्गार; रूखे केश, मैले कपड़ों में बैठी लम्बी-लम्बी साँसे लेती रहती हैं, यथा 'तिन महि पंच सहेलियां नाचइ गावइ न हसइ, ना मुखबोलइ बोल। नयनन्ह काजल ना दीउ, ना गलि पहिन्दोहार, मुख तम्बोल न खाइया, ना किछु किया सिंगार ।' इत्यादि पांचों की पहले सामान्य अवस्था बताकर फिर कवि एक-एक की कथाव्यथा उनकी जुबानी कहलाता है। पहले मालिन कहती है, यथा :'पहिली बोली मालनी मुझको दुःख अनन्त, बालइ यौवन छाडिकइ चल्यु दिसावरि कंतु । निसदिन बहवइ पवाल ज्युनयनह नीर अपार: विरहउ माली दुक्ख का, सूभर भरया किवार । कमल वदन कुमलाइया, सूखी सुख वनरइ, वाझू पीयारइ एक खिन, वरस बरावरि जाइ । तन तरवर फल लागिया, दुइ नारिंग भरपूर, सूखन लगा विरह झल, सींचनहारा दूरि ।' इसी प्रकार तम्बोलिन, छीपन आदि भी अपने दुस्तर विरह समुद्र का रो-रोकर वर्णन करती है जिसे सुनकर कवि भी बड़ा दुःखी हुआ और विप्रलंभ काव्य की रचना हुई। क्रमशः वर्षाऋतु आयी, प्रवासी पति वापस लौटे । पुनः पांचों सखियां आपस में मिलीं। इस बार वे हँसती, गाती और नाना शृङ्गार किए हुए १. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल-बूचराज एवं उनके समकालीन कवि पृ० १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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