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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसका प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है :
'पहिलऊ प्रण मिसु अनुक्रमिइं अ, जिणवर चउवीस, पछइ शासन देवता अ तीह नामऊ सीस । समरीअ सामिणि सारदा अ, सानिधि संभारउं ।
आगइ पालउं प्रतिपनू अ, कवि सिऊं अका हरऊ।' रास का रचना काल इस प्रकार उल्लिखित है :
'संवत पनर अकात्तरइ मा, जेठइ चौथि विशुद्धि, सु०' कवि मुनिसुन्दरसूरि को गुरु बताता है-(देशाई के पाठानुसार) 'तपगछि गुरु गोयम समा ओ मा० श्री मुनिसुन्दरसूरि, सु०
नामइ सर्व सिद्धि संपजै मा०, दुरिय पणासइ दूरि सु० ॥४८॥ यह १६वीं शताब्दी के प्रथम दशक की महत्वपूर्ण रचना है और काव्यत्व की दृष्टि से भी विचारणीय है किन्तु इसके कर्ता का निर्णय होना शेष है। इसकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव स्पष्ट है । __चन्द्रकीति -आपने 'श्री कीतिरत्न सूरि गीत' लिखा है जो ‘ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित है। भाषा के नमूने के लिए इसकी दो पंक्तियाँ उद्धृत की जा रही हैं :
'भूत प्रेत डर भर नावइ, जंजाल सबे दूरइं जावई,
गणि चन्द्रकीर्ति गुरु गुण गावै, श्री कीर्तिरत्नसूरि ध्यावइ ।१८।' इसमें कवि ने अपने गुरु श्री कीर्तिरत्न सूरि की कीर्ति का वर्णन सरल मरुगुर्जर भाषा में किया है।
चन्द्रलाभ -आंचलगच्छीय कवि थे। आपने सं० १५७२ में 'चतःपर्वी रास' लिखा। श्री देसाई ने मात्र रचना का उल्लेख किया है; न तो उससे कोई उद्धरण दिया है और न कवि के सम्बन्ध में कोई सूचना ही दिया है।
चारुचन्द्र-आप खरतरगच्छीय प्रसिद्ध विद्वान् जयसागर उपाध्याय के प्रशिष्य एवं भक्तिलाभ आध्याय के शिष्य थे। इन्होंने मरुगुर्जर में अनेकों रचनायें की हैं जिनमें उत्तमकुमारचरित, हरिबल चौपई सं० १५८१, १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० कवि भाग १ पृ० ४२-४३, भाग ३ पृ० ४५५ २. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ३. श्री मो० द० देसाई-जैन गुर्जर कवि भाग ३ पृष्ठ ५७०
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