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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
३६७ 'सुन्दरी सर्व व्यापार छाड़ी, पूछवा किण्ण नी बात मांडी।' और बोलीं कि कृष्ण मथुरा जाकर हम लोगों को भूल गये, तो उद्धव बोले
सर्व निरंतर शरषु रे निरषु तुम्हें निज नाथ,
इणि परि माधव प्रामिसिउ उद्धव कहि जोड़ी हाथ । उद्धव गोपियों के प्रेम में दीक्षित हो वापस लौटे, कंठावरोध हो गया, केवल संकेत से ही बहुत कुछ कह सके । रास का अन्तिम छंद इस प्रकार है :छिहत्तरि कीधू छटवा मेटवा श्री भगवान, कोडि कन्या परणाविइ जे फल हुइ समानि । श्लोका अठसठि तीरथ अवधान, हेमतुला पुरुष भूमिदान । भावि गाइं जे नर तेहाँ तोलि, भणइ चतुर्भुज वेदव्यास बोलइ ।।
चन्द्रप्रभसूरि -आपने सं० १५०१ में 'सुदर्शन श्रेष्ठि रास या प्रबन्ध' लिखा । २२५ छंदों के इस रास के कर्ता के सम्बन्ध में प्रत्यन्तरों में पाठभेद पाया जाता है। श्री मो० द० देसाई ने इस रास का कर्ता तपागच्छीय मुनिसुन्दरसूरि के शिष्य संघविमल या शुभशील को माना है। उसका आधार यह पंक्ति है 'तपागच्छी गुरु गौतम समाए मा० श्री मुनिसुन्दर सरि'; किन्तु बीकानेर के बहद् ज्ञान भंडार में उपलब्ध इस रास की प्रति में यह पंक्ति मिलती है--'चन्द्रगच्छी गोयम समाए मा० श्री चन्द्रप्रभसूरि'। श्री नाहटा जी इसी के आधार पर इसे चन्द्रप्रभ की रचना मानते हैं। श्री देसाई कहीं इसका कर्ता संघविमल या शुभशील को बताते हैं और किसी प्रति के आधार पर मेलो संघवी' को कर्ता कहते हैं। उन्होंने कई नाम देकर उन पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। इसलिए यहाँ श्री नाहटा जी के आधार पर कर्ता का नाम चन्द्रप्रभसूरि रखा गया है।
रास का चरित नायक सुदर्शन सेठ अपनी शीलनिष्ठा के कारण बड़ा प्रसिद्ध है । उसने नाना कष्ट सहकर भी पर स्त्री गमन को कभी स्वीकार नहीं किया। उसके शील के कारण शूली भी सिंहासन बन गई । कवि शील का माहात्म्य बखानता हुआ रास इस प्रकार समाप्त करता है :
'शील प्रबन्ध जो सांभलइ अमाल्हंड तडे, नर नारीय ते धन्न, सु०
सुदर्शन रिषि केवली अ, मा० चतुविधि संघ प्रसन्न, सुणि सु ।'२५५। १. प्राचीन फाग संग्रह (सं० भोगीलाल सांडेसरा) पृ० ९३ २. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग १ पृ० ४२-४३, भाग ३ पृ० ४५५ ३. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा पृ० ५६
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