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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
रचना है । भगवान शिव को पार्वती की तपस्या के सामने कृपालु होकर अपना व्रत तोड़ना पड़ा था, परन्तु नेमिकुमार अपने व्रत-संयम पर अन्त तक अडिग बने रहे और राजुल को ही संयम का व्रत लेना पड़ा। यह प्रवृत्ति प्रधान ब्राह्मण संस्कृति और निवृत्ति प्रधान श्रमण संस्कृति का मुख्य अन्तर है । जैनधर्म का संयम प्रधान निवत्ति मार्गी-आदर्श कवि ने नेमि के जीवन चरित्र के माध्यम से इस रचना में प्रस्तुत किया है। इसकी भाषा पर व्रज का प्रभाव अत्यधिक है। गोपाचल का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है :
'मधि देसु सुख सयल निधान, गहुँ गोपाचल उत्तिग ठाँनु । पढ़त सुनत जा उपज्य ग्यानु। मन निहचल करि जिय धरइ, राजीमती जिन संयमु लियो, नेमिकुँवर नेमि सयल वीनयौ। नेमिकुंवर नेमि जिन वंदियौ ।४५।'
बारहमासे का दुःख वर्णन करने के पश्चात् राजुल नेमिकुंवर से प्रार्थना करती है :
'ए षट्तुि को सके सम्हारि, उपजे दुषु तुमहि सम्हारि, क्यो करि यहु मनु राषि हैं, रहि हैं पास तुम्हारे देव, करि हैं चरन नित सेव, नेमिकुंवर जिन वंदिही ।३४।' रचना काल इस प्रकार बताया गया है :'संवतु पंद्रह से दो गनौ, गुन गुनहत्तरि ता ऊपर चैन,
भादो वदि तिथि पंचमीवार, सोम नषितु रेवती साह ।' इनके 'क्रोध गीत' की दो पंक्तियाँ देखिये :'मानु न कीजै जोईवरा, तिसु मानहि हो मानहि जियरा दुख सहै । अप्पु सराहे हो भलो, पुणि परु की हो परु कीणित करइ । अहमेव करि करि कर्म वधौ, लाख चौरासी महि फिर,
इम जानि जियरा मानु परिहरि, मानु बहु दुखह करौ ।' १. डॉ० क० च० कासलीवाल-कविवर बचराज एवं उनके समकालीन कवि
प० १७५ २. वही, प० १७३ ३. वही, पृ० १६४ ४. वही, पृ० १६१
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