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________________ ३६२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'जयउ जिनवरु विमलु अरहंतु सुमहंतु सिव कंतवरु, अमर णयण रणिम्पर वंदिउ । उव समिय फलूसरइ ति जय वंधु दह धम्म णंदिउ ।' कुबड़े द्वारा संगीत का प्रदर्शन करते समय नाना राग-रागिनियों की भी चर्चा है । इसी कुबड़े के प्रति कामासक्त होकर शील और सदाचार को ताक पर रखकर रानी कहती है :___'परि जब मयन सतावे वीर, तु न सखी जानइ पर पीर, मन भावतो चढ़े चिस आणि, सोइ सखी अमर वर जाणि ।' इस काव्य को डा० कासलीवाल ने 'कविवर वूचराज एवं उनके समकालीन कवि' नामक ग्रन्थ से पहली बार प्रकाशित किया है। इसकी प्रति जयपुर के दिगम्बर जैन बड़ा तेरहपंथी मन्दिर के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। रचना काल का विवरण देखिये : 'वसुविह पूजिनि ने स्वर एहानु, लै अभारु दिन सुनहि पुरानु । संवत पन्द्रह से इक असी, भादौ सुकिल श्रवण द्वादशी १५३६।' अन्त में कवि कहता है :'पढ़ गुण लिषि वेइ लिषाइ, अरु मूरिष सौ कहो सिषाइ । ता गुण वणि बहुतु कवि कहै, पुत्र जनमु सुखु संपति लहै ।५४० ।' यह अन्तिम छन्द है । इसमें कवि ने कहा है कि प्रतिलिपि लिखने या लिखवाने और उसे नासमझों को समझाने का बड़ा माहात्म्य है। ऐसा करने वाले को पुत्र, धन, यश की प्राप्ति होती है। जैन समाज में पुस्तकों को लिखने के साथ उनकी प्रतिलिपि कराने तथा उन्हें सुरक्षित रखने की धार्मिक भावना हमेशा काम करती रही। इन पंक्तियों में कवि ने उसे ही व्यक्त किया है। ___ इसकी मरुगुर्जर भाषा पर हिन्दी विशेषतया तत्कालीन काव्य भाषाव्रजभाषा का प्रभाव अधिक है। काव्य गुण सम्पन्न व्रजभाषा का एक नमूना इन पंक्तियों में स्पष्ट है : 'तोहि कहा एते सौ परी जो हौं कही सुन्दरि रावरी, विहिना लिख्यो न मेट्यो जाइ, मन माँ सखी खरी पछिताइ ।२२२॥ १. डॉ० कासलीवाल-कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि पृ० १९३ २. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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