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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गजेन्द्र प्रमोद-आप तपागच्छीय आचार्य हेमविमल सूरि की परम्परा में हर्षप्रमोद के शिष्य थे। आपने 'चित्तौड़ चैत्य परिपाटी' नामक ऐतिहासिक रचना सं० १५७३ में की। यह ६८ कड़ी की कृति है। यह रचना चित्तौड़ के राणा संग्राम सिंह के समय की है अतः इसका ऐतिहासिक महत्व है। महाराणा संग्राम के समय मेवाड़ और चित्तौड़ पर समूचे देशवासियों को गर्व होता था। इसकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव स्पष्ट है। सरस्वती की वंदना के बाद कवि चित्तौड़ का वर्णन करता हुआ लिखता है :
'सरस वचन दिउ सरसती नइ लही सगुर पसाय, चैत्य प्रवाडी विरचस्यु अरचस्यु श्री जिनराय । अंग तिलंग कलिंग अ गौड चौड नइ लाउ, मालव मरहठ सोरठ तिहि मंडण मेवाड़ । श्री चित्रकटिहि राजइ पछजइ जे जेहनु नाम,
महीपति सयराणु अ राणा अ श्री संग्राम ।' रचना के अन्त में कवि रचनाकाल और गुरुपरम्परा का परिचय देता हुआ लिखता है :
संवत पनर त्रिहत्तरइ अ, नरेसूआ फागण वदि वारि चैत्र प्रवाडी मइं रची अ, नरेसूआ रिद्धि सिद्धि जयकार, तव गण रयणायर चंद दिवायर हेमविमल सूरिंद गुरो, गुणमणि वइरागर विद्यासागर चरणप्रमोद पंडित प्रवरो, तस सीस सिरोमणि कवि चूड़ामणि श्री हर्षप्रमोद जयवंत चिरो,
तस सीस गयदि परमाणं दिउं, करिउं कवित जयकार करो। इसकी भाषा में लय, अनुप्रास और प्रवाह के कारण गेयता आ गई है । वइरागर, विद्यासागर, सिरोमणि और चूड़ामणि में अनुप्रास देखा जा सकता है।
गणपति-आप आमोद निवासी वाल्मीक कायस्थ नरसा के पुत्र थे। आप जैनेतर कवि हैं किन्तु मरुगुर्जर भाषा में आपकी प्रसिद्ध रचना 'माधवानल सम्बन्ध प्रबन्ध' (सं० १५८४) १६वीं शताब्दी की उल्लेखनीय रचना है । इस कृति में आठ अंग हैं । दोग्धक वंध में रचित यह विशाल १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ खंड २ पृ० १४९३ २. वही
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