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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
श्री कनक तिलकु सुसीस सुन्दर लिक्खीविनय मुणीसरो, तसु सीस गणि क्षान्तिरंगि पभणइ हवइ दिनदिन सुहकरो ।"
गजराज (पंडित) - - आपकी रचना 'हीरविजय सूरिना बारमास' (सं० १५९६ फाल्गुन) प्रसिद्ध तपा० आचार्य हीरविजयसूरि के चरित्र पर आधारित एक बारहमासा है । इसमें बारहमासों का वर्णन किया गया है । प्रत्येक महीने का वर्णन सुखद एवं दुखद परिस्थितियों के अनुसार उद्दीपन विभाव के रूप में करने की परिपाटी जैन साहित्य में काफी पुराने समय से प्रचलित है । प्रस्तुत बारहमासे में भी उसी पद्धति का अवलम्बन करके आ० हीरविजयसूरि का गुणानुवाद किया गया है । कार्तिक मास का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है :
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'कारतक मासे आवीओ, भावीओ सखे परिवार रे, अनुमति दीधी बेनडी, लेवा ते संजमभार रे । श्री विजयदान सूरि ने हाथें ते पाटण नयर मझार रे, संवत् १५ छनूओ करतग बीजे मास रे ।
करजोडी गजराज पंडित भणे, वरतो ते जयजयकार रे, विमलाही बेनी ओम वीनवे | 2
इसकी भाषा में कारक चिह्न ने, नू और ओम आदि प्रयोगों से पता चलता है कि कवि की भाषा पर गुर्जर का प्रभाव अधिक है । इसके प्रारम्भ की कुछ पंक्तियाँ देखिये :
सरसती भगवती वरसती, वाणी दीओ रसाल, वीणा पुस्तक धारिणी, कवि जन दीओ अधार । कर जोड़ी गजराज पंडित भणे, वार जा सुभवेल, तास तणो ऊसाऊले, आज करूँ रंगरेल । "
काव्यत्व की दृष्टि से रचना सामान्य कोटि की है । गजराज जी ने स्वयम् को सर्वत्र 'पंडित' उपाधि
रचना में गुरुपरम्परा नहीं दी है, से संयुक्त करके ही नाम दिया है ।
गजलाभ -- अंचलगच्छीय थे । आप १६वीं शताब्दी के अन्तिम और १७वीं शताब्दी के प्रथम चरण के कवि थे । आपकी प्रथम रचना बारव्रत १. श्री प्रेमसागर जैन -- हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० ९६
२. श्री मो० द० देसाई - जै० गु० क० भाग १ पृ० १७१
३. वही
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