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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
'संवत पनर अकानवई ओ मा वदि वैशाखह मासि, शनिवार सोहामणउ ओ मा रचिउं रास 'शील प्रबन्धह जे भगइ ओ मा नरनारी हरषई जे ओ सांभलइ ओ मा तेहवरि जयजयकार ललितांग कुमार रास में सर्वप्रथम कवि ने सरस्वती की
उल्लास । १९० । सुविचार, 1989 | 2
वंदना की है,
यथा :
रचनाकाल
अन्त
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'पहिलू सरसती पय नमी, आराही मन शुद्धि, पुण्य प्रबन्ध हूं भणिसु, आणी निरमल भत्ति । दान सील तप भावना, जिण भाषइ अ धर्म, aataण वली वली इम कहइ, सूधउ ऐहज मर्म । आगे शील का महत्व बताता हुआ कवि लिखता है :
'शीलि सवि सुख संपजइ, शीलिं निरमल बुद्धि, शीलि दुख सयलह टलइ, पामीजइ सही सिद्धि । इसका रचनाकाल कवि ने इस प्रकार बताया है'आदमपुरि जगि कहीइ सार, निवसई श्रावक तिहां सुविचार, चंद्रप्रभ जिन तणइ पसाइ, अलीय विधन सवि दूरि पलाइ । भइ गुणइ अहनिश सांभलइ, पाप पडल सवि दूरि टलइ | क्षमाकलश मुनि कहइ सुविचार, नितुनितु तेह घरि जयजयकार | " इसमें ललितांग के चरित्र के माध्यम से शील का गुणगान किया गया है । भाषा सुबोध मरुगुर्जर है । उपदेश वृत्ति की प्रधानता के चलते काव्य पक्ष दब गया है |
क्षांतिरंग गणि-आप सम्भवतः लक्ष्मीविनय के शिष्य कनकतिलक के शिष्य थे । आप एक भक्त कवि थे । आपने खैराबाद जिला सीतापुर स्थित जैनमन्दिर में प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ की प्रतिमा को लक्ष्य करके 'पार्श्व जिन स्तवन' लिखा है जिसमें एक भक्त हृदय की विह्वलता व्यक्त हुई है। इसकी भाषा और अभिव्यन्जना शैली का नमूना निम्नलिखित उद्धरण द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है :--
'इय पास जिणवर नयण मणहर कप्प तरुवर सोहए । श्री नयर खयराबाद मंडण, भविय जणमण मोहए ।
१. श्री मो० द० देसाई - जै० गु० क० भाग १ पृ० ९३ २. वही पृ० ९४-९५
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