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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसमें कवि का कथन है कि धर्म का सार जीव दया है । इनके दूसरे गीत 'जयणा गीत' में सात गाथायें हैं जिसमें कवि ने अपना नाम खीम लिखा है । जीवदया में खीमराज लिखा था, अतः लगता है कि कवि खीमो, खीमा, खीम और खीमराज का यथासमय प्रयोग करता था और इस नाम के कवि एक ही व्यक्ति खीमा हैं। 'जयणागीत' की प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
'अ श्रावक कुलि अवतार लहीनइ, सखी जे जीव विराधई रे, तेक मणि चिंतामणि लाधउ, पणि गांठि नवि बांधउ रे ।१। इसकी अन्तिम दो पंक्तियाँ देखिये :'षटकसाल ओ पंचइ जाणी, जीव जतन जो पालइ रे, खीम कहइ ते धनधन सुकलीणी, मुगतिफल ते लिहसई रे ।७।''
इसकी भाषा पर मरु की अपेक्षा गुर्जर का प्रभाव अधिक प्रकट होता है।
क्षमाकलश-आगमगच्छीय सूरि श्री अमररत्न की परम्परा में आप कल्याणराज के शिष्य थे । आपने सं० १५५१ वैशाख वदि शनि को 'सुन्दर राजा रास' लिखा। सं० १५५३ भाद्र वदि ११ शनि को उदयपुर में आपने अपनी दूसरी रचना 'ललितांग कुमार रास' लिखा जिसमें शीलधर्म की महिमा बताई गई है। यह २२२ पद्यों का रास बन्ध है। 'सुन्दर राजा रास' में अरिहंत की वंदना करता हुआ प्रारम्भ में कवि कहता है :
'पहिलू परमेसर नमी आराहिसु अरिहंतु, गाइसु शील सोहामणो सांभलयो एकति । सुन्दर राय तणा गुण कतो कहुं मुख एक, शीलि करी जगगाजतु कहीइ ते सुविवेक ।'
ग्रन्थ सम्बन्धी विवरण अन्त में इस प्रकार दिया गया है :गुरु परम्परा –'आगम गच्छि जयवंता ओ मा, सोमरत्न सूरींद,
अहनिसि भवियां निव नमु ओ मा, जिम हुइ परमाणंद । क्षमाकलश मुनि इम भणइ ओ मा, भवियण सुणउ अ रास,
शीलई शिवसुख संपजइ ओ मा, छूटीइ कर्मना पास ।१८९।' १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४९४-४९६ २. वही, भाग १ पृ० ९३
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