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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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मरुगुर्जर में आपकी अनेकों रचनायें प्राप्त हैं जिनकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। आपकी रचनाओं में श्रावक विधि चौ० ' गाथा ७० सं० १५४६, इक्षुकार चौ० गा० ५०, फलोधी पार्श्वनाथ रास गाथा २५, नमिराज चौ० गा०७४, मेतार्य चौ० गा० ९८, तेतली पुत्र चौ० गा० १०१, जिनपालित जिन रक्षित चौ०, चौबीसी, चारित्र मनोरथ माला गा० ५३, श्रीमंधर स्तवन, जीरावला स्त०, वरकाण । स्त०, ज्ञानपंचमी स्त वीर स्त०, समवसरण स्त०, उत्तराध्ययन संज्झाय, मंडपाचल चैत्य परिपाटी आदि उल्लेखनीय हैं मंडपाचल चैत्य परिपाटी जैनयुग वर्ष ४ में प्रकाशित हो चुकी है ।
श्री अ० च० नाहटा इन्हें खरतरगच्छीय सोमध्वज का शिष्य बताते हैं; परन्तु श्री मो० द० देसाई इन्हें तपागच्छीय सोमध्वज का शिष्य कहते हैं ।" ये सोमध्वज यदि जिनभद्रसूरि के शिष्य हों तो निश्चय ही खरतरगच्छीय होंगे । हम इस विवाद में न पड़कर इनकी रचनाओं का ही आकलन करेंगे। इनकी प्रथम कृति 'श्रावक विधि चौ०' या श्रावकाचार चौ० का विषय स्वयम् स्पष्ट है । इसमें श्रावकों के लिए विहित आचार का कथन किया गया है । इसकी अन्तिम पंक्तियों में कवि ने इसका रचना - काल इस प्रकार दिया है
:--
'पनरसइ छइताला वर्षि, खेमराज गणि मनि उत्कर्ष,
पास पसाइ पुरी आदरी, श्रुतश्री श्रावक विधि ऊचरी ॥८१॥ ' चारित्र मनोरथमाला' की अन्तिम चार पंक्तियाँ प्रस्तुत हैंचरण मनोरथ मालिका, श्रावक मुनि सुविचार, कंठइ राखइ आपणइ, ते पामइ भवपार ।
निज मनि भावइ भावना, अवसर करइ जिंसार,
श्री खेमराज मुनिवर भणइ ते सुख लहइ अपार ॥५३॥०
इसमें श्रावकों और मुनियों के आचरण सम्बन्धी विधि-निषेध का आख्यान है ।
'इक्षुकारी राजा चौ०' का प्रथम छंद देखिये :
'पण मिय वद्धमाण जिण सांमिय, जो सेवइ जण पूरइ कामीय, इखुकारि अज्झयण विचारो, चउद समउ पभणिसु ऊदारो |१| ' १. श्री अ० च० नाहटा - परम्परा 'राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल पृ० ६२ २. श्री मो० द० देसाई - जै० गु० क० भाग ३ पृ० ५००
वही
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