________________
३५०
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
से निखरने लगा है । फिर भी किसी कवि की भाषा का मूलाधार चाहे हिन्दी, राजस्थानी अथवा गुजराती हो पर अन्य भाषाओं का मिश्र 'प्रयोग अब तक बना हुआ है ।
कोल्हि - आपने सं० १५४१ में 'कंकसेन राजा चौपई' लिखी । इस चौपई के प्रारम्भ में कवि कोल्हि ने शारदा की वंदना की है फिर तंबावती नगरी का वर्णन किया है जहाँ राजा कंकसेन निवास करता था; कवि लिखता है :
'पहिलऊ पणमउ शारद माइ, भूल्यो आखर आणउ ठाई । काशमीर मुख मंडण ठणी, करउ पसाउ देहबुद्धि घणी ।'
X
X
X
X
तंबावती, बसइ अतिभली, कुल छत्तीस रहसी इति मिली, दिसइ दुरग धवल हल घणां मढ़ देवल किनाहीं मणां । अन्त में कवि अपने काव्य का संदेश देता हुआ कहता है : 'जाण्या उराड़ा तणो विचार, वन मांहे नाठउ छोड़ि घर बार । पंचा कह्याउ जो नवि करइ, स कंकसेन ज्यू भूलउ फिरइ । ३२९ | पन्द्रहसइ इकतालइ (१५४१ ) श्रावण मासि, बुद्धि पूछो कवियण पासि, पुष्य नक्षत्र आछाइयाती खरउ, उद्यम एह आज ही करउ । ३३० ।' कवियण सानिधी चउपइ, भोलोउइ भावि कोल्हि इम कही, सुदि पांचमी अर मंगलवार, हुवउ चरित सब विघ्न निवार । ' इस प्रकार कंकसेन राजा की कमजोरियों, भूलों और विषयासक्ति का उदाहरण प्रस्तुत करके कवि ने पाठकों को चेतावनी दी है कि कंकसेन राजा जैसी भूलें न करें बल्कि संयमपूर्वक अपना इहलोक और परलोक सुधारें । यह चौपई मुख्य रूप से दोहे और चौपाई छन्द में लिखी गई है । इसकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है ।
-.
खेमराज - (क्षेमराज) आप जैसलमेर ज्ञानभंडार के संस्थापक खरतरगच्छीय आचार्य जिनभद्र सूरि के प्रशिष्य और सोमध्वज के शिष्य थे । आप संस्कृत और मरुगुर्जर के उत्तम लेखक थे । आपने संस्कृत में कई स्तोत्र और द्वात्रिशिकायें लिखीं । 'उपदेश सप्ततिका स्वोपज्ञ वृत्ति' (सं० १५४७) आपकी प्रकाशित रचना है ।
१. श्री अ० च० नाहटा - जै० म० गु० क० भाग १ पृ० १२९
२ . वही
Jain Education International
-:
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org