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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
रास के प्रारम्भ में कवि पार्श्व जिन की वंदना करता हुआ कहता है -
'पहिलुप्रणमउ पास जिन जिराउलि नऊ राय,
मनवंछित आपइ सदा, सेवइ सुरसति पाय । इस प्रबन्ध में चार खंड हैं, चतुर्थ खंड का नाम 'नवरस सिंगार' है । कवि को रस, शृङ्गार आदि का बोध है । इस ग्रन्थ की पद्य संख्या ९२५ है । प्रबन्ध के अन्त में रचनाकाल का उल्लेख कवि इस प्रकार करता है'विक्रम नवि संवत्सर पंनर पुण पुणपन्न, वरस मज्झमि माघ सुदि
पंचम राऊसिरि हरिबल प्रबन्ध । इनकी दूसरी रचना 'संवेग द्र म मंजरी' में क्रोध आदि मनोविकारों का फल और अनित्यादि बार भावना का स्वरूप मुख्य रूप से दोहा और चौपई छन्द में वर्णित है । ढालों का भी प्रयोग किया गया है। इसका प्रथम पद्य प्रस्तुत है, यथा'सकल रूप प्रणमी अरिहंत, समरी साधु सदा गुणवंत,
श्री सिद्धान्त श्रु तधर राऊ, बुद्धि तणु जोणिइ करिऊ पसाऊ ।१। हूँ पणि अछऊ मूरख भूलि, सविहुं सुकवितानी पगधूलि,
बोलिसु वीरवचन मनिधरी, ओ संवेग-द्रुम मंजरी।' इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
'नमिय जिनवर नमिय जिनवर अपर अरिहंत, समरी सद्गुरु साधु सवि, दयामूल जिनधर्म निश्चल, श्रुतदेवी सुपसाउलउ सुषी सुगुरु उवजेस मंजुल । कुशलसंयम कवि इम भणइ, अ चउपइ रसाल,
संवेग द्र म मंजरी, संवेगिइ चउसाल। इनकी एक अन्य रचना 'नेमिकुजरे गजसिंह राय रास' का भी उल्लेख मिलता है किन्तु तत्सम्बन्धी विवरण अज्ञात है ।
__कुशलहर्ष-आप तपागच्छीय आचार्य विजयदान सूरि के शिष्य हर्ष संयम के शिष्य थे। विजयदान सूरि को आचार्य पद (सं० १५८७) सिरोही में प्रदान किया गया था। वे सं० १६२२ में स्वर्गवासी हुये। कुशलहर्ष ने कई स्तवन लिखे, जिनमें नागपुर मंडन शांति जिन स्तवन, नेमिनाथ स्तवन (६६ कड़ी), शत्रुजय स्त०, ऋषभदेव स्त० (६८ कड़ी), फलवद्धि मंडण श्री पार्श्वनाथ स्त० (६८ कड़ी) और महावीर स्तवन उल्लेखनीय हैं । १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग १ पृ० १२९, भाग ३ पृ० ५६६
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