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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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‘कृतकर्म राजाधिकार रास' की प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :'सकल मूरति कल्याणकर, आदिहिं आदि जिणिंद,
श्री विमलाचल मंडणउ पणमउ आदि जिणिंद । इसके बाद कवि ने नेमिनाथ, वर्द्धमान और सरस्वती की वन्दना करके कृतकर्म की रचना के लिए उनसे विमल बुद्धि का वरदान माँगा है। रास के अन्त में अपने गुरु सौभाग्यहर्ष का अभिनन्दन करते हए कहते हैं
'श्री सौभाग्यहर्ष सूरि चिरजयु मे मा सहूको दि आसीस, विबुध पुरंदर गुणनिलु ओ मा, धर्मवंत निसिदीस । विद्या चोदइ अलंकरिउ ओ मा, तप जपि क्षिमा निधान, श्री कल्याणजय जयकरु ओ मा, पंडित सकल प्रधान ।'
श्री देसाई ने जै० गु० क० भाग १ में इसके रचनाकार का नाम केवल कल्याण लिखा है। जै० गु० क० भाग ३ में नाम सुधार कर कल्याणजय (जयकल्याण) करक आगे शिष्य लिख दिया है अर्थात् यह रचना जयकल्याण की नहीं बल्कि उनके किसी शिष्य की होगी। अतः यह स्पष्ट नहीं हो सका कि इसके लेखक कल्याणजय हैं या उनका कोई शिष्य । उन्होंने कोई ऐसी पंक्ति नहीं उद्ध त की है जिसके आधार पर इसे जयकल्याण के शिष्य की रचना समझा जा सके इसलिए इसे अभी कल्याणजय के नाम पर अंकित किया जा रहा है।
कल्याणातलक (उपाध्याय)-खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य जिनसमुद्र सूरि के शिष्य थे। इन्होंने सं० १५५० के आसपास जैसलमेर में 'धन्नारास' (६५ पद्य) की रचना की। इनकी दूसरी रचना 'मृगापुत्र संधि' (४४ पद्य) है । आपने प्राकृत में 'कालिकाचार्यकथा' (५६ गाथा) लिखी और स्वयम् उसका संक्षिप्त भावार्थ बालावबोध भी बनाया। श्री अ० च० नाहटा की प्रति के आधार पर इसे 'कालक कथा संग्रह' नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया गया है। 'धन्नारास का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है :
'समरिय समरस तणउ निहाण, वीर जिणेसर त्रिभुवन भाण ।
वीर कहिउ जे नवमइ अंगे, धन्ना संधि कहिसु मनरंगे ।१। १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० कवि भाग १ पृ० १६० एवं भाग ३ पृ.
६१२-६१३ १. श्री० अ० १० नाहटा-'राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल' परम्परा प०
६२ और ७०
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