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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अन्त 'एहु विवाहलउ भणइ भावि, तसु मणोवंछित देइ इ दो,
भंतु सिरि कित्तिरयण सूरिपाय, सीसु तास कहइ कल्लाणचंदो ।" यह रचना सं० १५२५ के लगभग लिखी गई होगी। सं० १५२५ में अनशनपूर्वक कीर्तिरत्नसूरि का स्वर्गवास हुआ था ।
कल्याणचन्द ने अपने गुरु की स्तुति में १८ गाथा की एक और रचना 'श्री कीर्तिरत्नसूरि चउपइ' भी लिखी है, इसमें भी श्री कीर्तिरत्नसूरि की जीवनी वर्णित है । यह रचना ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित है । इससे मालूम होता है कि कीर्ति रत्नसूरि ओसवाल वंशीय प्रसिद्ध शाह कोचर के वंशज देपा के पुत्र देल्हा थे । आपका जन्म सं० १४४९, दीक्षा सं० १४६३ और आचार्य पद स्थापना सं० १४९७ में आ० जिनभद्र द्वारा हुआ । कीर्तिरत्नसूरि की 'नेमिनाथ काव्य' प्रकाशित रचना है । प्रस्तुत चौपइ की भाषा सरल मरुगुर्जर है । प्रथम छंद देखिये :
'सरसति सरस वयण दे देवि, जिम गुरु गुण बोलिउं संखेवि । पीजइ अमिय रसायण विन्दु, तहवि सरीरइ हुई गुण वृन्द
'
इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
'श्री कीर्तिरतन सूरि चउपइ, प्रहऊठि जे निश्चल थई । भइ गुणइ तिहि काज सरंति, कल्याणचन्द्र गणि भगति भणति । १८ *
लगता है कि कल्याणचन्द्र को इस समय तक गणि की उपाधि प्राप्त हो चुकी थी । शायद यह रचना प्रथम कृति 'विवाहलउ' के बाद की है । इसमें निश्चित रचना काल नहीं है किन्तु यह सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की रचना निश्चित रूप से होगी ।
कल्याणजय (जयकल्याण ) - आप तपागच्छीय आ० हेमविमलसूरि के प्रशिष्य एवं सौभाग्यहर्ष सूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५९४ में गंधार नगर में 'कृतकर्म राजाधिकार रास' लिखा । सौभाग्य हर्ष और आनन्दविमल सूरि हेमविमलसूरि के शिष्य थे । यहीं से दो पट्ट अलग हुए । सं० १५८२ में क्रियोद्धार के समय हेमविमलसूरि ने गच्छ का समस्त भार सौभाग्यहर्ष को सौंपा था । सौभाग्यहर्ष ने लघुशाला नामक अपना अलग पाट चलाकर उस पर सोमविमलसूरि को स्थापित किया । आनन्द विमल सूरि ने अपने पट्ट पर विजयदानसूरि को स्थापित किया ।
१. श्री अ० च० नाहटा - जै० म० गु० कवि पृ. ११९
२. ऐ० जे० काव्य संग्रह पृ० ५२
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