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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
३३९ पाई है । 'क्षेमराज उपाध्याय गीत' सं० १६०० की रचना है। इसमें क्षेमराज का परिचय इस प्रकार दिया गया है। आप छ:जहड़ गोत्रीय शाह लीला के पुत्र थे। सं० १५१६ में आ० जिनचन्द्रसूरि ने आप को दीक्षित किया था। आप सोमध्वज के शिष्य थे। आपने अनेक प्रस्तकें लिखी। इस गीत का प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है :
'सरसति करि सुपसाउ हो, गाइसु सुहगुरु राउ हो।
गाइसु सुहगुरु सफल सुरतरु, गछि खरतर सुहकरो। कवि अपने गुरु का स्मरण करता हुआ अन्त में लिखता है :_ 'दीपंत दिनमणि समउतेजइ भविजयण तुम्हि वंद,
उदितवंता श्री उवझाय खेमराज कनक भणइ चिरनंदउ ।' इन उद्धरणों के आधार पर पता चलता है कि आप का मरुगुर्जर काव्य भाषा पर अच्छा अधिकार था। आप वर्णन करने में कुशल थे और कुल मिलाकर आपमें धर्मोपदेशक की अपेक्षा सहृदय कवि का तत्व अधिक था।
१. कक्कसूरिशिष्य-उपकेशगच्छीय कक्कसूरि के किसी अज्ञात शिष्यने 'कुलध्वज कुमार रास' (गा० ३७५) लिखा। श्री मो० द० देसाई का कथन है कि ये सनत्कुमार चौपइ (सं० १५५१) के रचयिता कक्कसूरि-शिष्य . श्री कीर्तिहर्ष हो सकते हैं । रास के प्रारम्भ की पंक्तियाँ इस प्रकार है :
'पास जिणेसर पाय नमी जीराउलि अवतार, महीयलि महिमा जेहनू दीसे अतिहि उदार । मति समरू वागेश्वरी सेवकजन साधारि, संषेपि गुण सीलनां बोलु गुरु आधारि । जिणसासणि जिण भासिउं, दानसील तप भाउ,
सहिगुरु श्री कक्कसूरि भणइ, अधिक सीलु प्रभाव । इस कृति में शील का बड़ा गुणगान किया गया है । आदर्श, शीलवान पुरुष के रूप में कुलध्वज कुमार का चरित्र चित्रित किया गया है। इस रास में-पर-स्त्री-वासना निवारण अर्थात् शील पर ही विशेष बल दिया गया है। इस रास की अन्तिम कुछ पंक्तियाँ निम्नांकित हैं :
'शीलि सोहइ जंबू स्वामी, थूलभद्र गोयम गुणनामि,
बाहुबली सकोशल सिंह, सेठ सुदर्शन शील धुरि सींह ।' १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह क्रमसं० २९ २. श्री मो० ८० देसाई, जे० गु० क० भाग ३ पृ० ५२१
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