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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कनक कवि - आप खरतरगच्छ के ६० वें पट्टधर आचार्य जिनमाणिक्य सूरि के शिष्य थे । सूरिजी की दीक्षा सं० १५६०, पदस्थापना सं० १५८२ और स्वर्गारोहण सं० १६१२ में हुआ । कनककवि का समय भी यही होगा । आपने सं० १५८२ के आसपास ५० गाथा की रचना 'मेघकुमार रास' लिखा । मेघकुमार अपने कठोर संयम एवं आचार निष्ठा प्रसिद्ध है । इस रास में उन्हीं का वर्णन किया गया है ।
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वल्कलचीरी ऋषिबेलि और 'क्षेमराज उपाध्याय गीत' भी आपकी अन्य दो छोटी छोटी रचनायें हैं । मेघकुमार रास में कवि मगधदेश, उसकी सुन्दर नगरी राजगृही और राजा श्रेणिक का प्रारम्भ में उल्लेख करता है, यथा
'देश मगध मांहि जाणि ओ राजगृह नगर नवेसूओ । राजकरे रलियामणॐ श्रेणी सबल नरेश 19| '
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अन्त में कवि ने अपने गुरु का सादर स्मरण किया है, यथा'ते मुनिवर मेघकुमार जीणे चारित्र पालिऊ सार, गुरु श्री जनमाणिक सीस, कवि कनक भणइ निसदीस | 2 'वल्कलचीर ऋषिदेलि' भी प्रथम रचना के समान संयमी ऋषि की स्तुति में लिखी लघुकृति है । इसका आदि और अन्त इस प्रकार हैं आदि- पोतनपुर वरते नगर सिरोमणि जाणू, गढ़मढ़ धवलगृह पोलि प्रसाद वषाणू । सोमचंद नरेसर राज करइ सुविचार, राणौ धारिणी गुणवंति तणु भरतार ।' तत षिणि रिषि पाउिं केवल निर्मल दायक श्रेणि शुभ ध्यानि, बिन्हइ सहोदर ते केवल धरहुं प्रणम् बहुमानि । वल्कलचीर प्रसन्न चन्द्ररिषि, जिनशासनि जयवंत, कनक भणइ तेहना गुणगांता, महिमा सुजस अनंत । ७५ । '
अन्त
यह रचना बेलि नामक एक विशेष काव्य विधा में रोचक ढंग से प्रस्तुत की गई है । यह मरुगुर्जर या पुरानी हिन्दी की प्रतिनिधि भाषा शैली में लिखी गई है । इसमें नगर वर्णन, तपस्यावर्णन आदि वर्णन स्थल अच्छे बन पड़े हैं । उच्चकोटि के काव्य सौन्दर्य के अभाव में भी वर्णन कौशल द्वारा कवि ने इस उपदेशपरक कथा कृतिको रोचकढंग से प्रस्तुत करने में सफलता १. श्री मो० द० देसाई - जे० गु० कवि भाग १ पृ० १७० और भाग ३ पृ० ६२९ २. श्री अ० च० नाहटा - जै० म० गु० कवि पृ० १३३
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