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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सिद्धि बुद्धि वर विधन हर, गुणनिधान गणपति प्रसादि, ज्ञानी ऋषि आगइ हुआ, जे आगम परवेस,
तस पसाई कवीयण कहई, विक्रमसेन वर्णवेसु ।१।। इसमें सरस्वती के साथ शंभु, शक्ति और गणपति की वंदना की गई है। रास में रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है :
'पनर पांसट्ठि संवच्छरिई, ज्येष्ठ शुदि पक्ष दिनकरइ ।
रचिउ रास से शास्त्रप्रकाश, कहिकवियण निजगुरुनुदास । इसके अन्त की पंक्तियों में विभिन्न प्रतियों में पाठान्तर मिलता है। जैसे किसी प्रति में इन पंक्तियों से रास समाप्त होता है
'तसहि गुरुनु अनुमत लही, कोतक कथा कवीश्वर कही।
विपुल बुद्धि सुकवि तेह तणइ, वाचक उदयभाणइम भणइ ।' और किसी में इसके आगे निम्नलिखित दो पंक्तियाँ दूसरी हैं :
'तस अनुक्रम छइ सूरि सुजाण, महिमावत महीअल जग भाण ।
श्री सौभाग्य तिलकसूरि, जगि यजवंता आणंद पूरि।' इससे स्पष्ट है कि आप सौभाग्य तिलक के शिष्य थे। 'नू' विभक्ति और 'छइ' क्रिया के प्रयोग से यह प्रकट होता है कि इस रास की भाषा मरुगुर्जर है किन्तु इस पर गुर्जर का प्रभाव अधिक है।
उदयवंत-आप तपागच्छीय आ० सोमसुन्दर सूरि के शिष्य थे। आप ने सं० १५३५ में 'नवकार महामंत्र गीत' लिखा जो जैनयुग में प्रकाशित हो चुका है। यह १५ छंदों की लघु रचना है जिसमें नवकार मन्त्र का माहात्म्य बताया गया है । इसके प्रारम्भ की पंक्तियाँ देखिये :
'अक्षर संपत जपत पदि पहिलइ, बीजइ बीजक पंच, बीजइ सातसात चउथइ व्रत, नव पंचमइ प्रपंच,
__सुगुणी गुणीइ नवकारो।। अन्त में लेखक ने अपना और अपने गुरु का उल्लेख इस प्रकार किया है :
- 'तपा गच्छनायक गुरुआ, सोमसुन्दर गुरु राया,
तास पसाइं उदयवंत , परम मंत अम्हि पाया ।१५।३ १. श्री देसाई-जै० गु० क० भाग १ पृ० ११३ और भाग ३ पृ० ५४८ २. वही
पृ० ४९२ ३. वही भाग ३ ५० ४९२
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