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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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तांग चरित्र या 'ललितांगरास' लिखा । आपके गुरु शान्तिसूरि भी सुलेखक थे और 'सागरदत्त रास' की रचना इन्होंने की थी । ईश्वरसूरि ने ललितांग चरित्र की रचना सोनाराय के पुत्र पुरंज की प्रार्थना पर की थी । बाद में ये पुंज मालवा के बादशाह नसिरुद्दीन के प्रतिनिधि मलिक माफर के मंत्री हो गये थे । बादशाह ने मांडवगढ़ के मेघमंत्री को मलिक माफर की उपाधि दी थी जिसे वह अपना मित्र और प्रतिनिधि मानता था । पुंज उन्हीं मेघमंत्री के सहायक एवं सलाहकार थे । आप ईश्वरसूरि के भक्त थे । चिमनलाल डाह्याभाई दलाल ने ललितांग चरित को उच्चकोटि की रचना बताया है । इसमें सोलह प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है । कवि इसके सौन्दर्य की स्वयम् सराहना करता है, यथा :‘सालंकार समत्थं सच्छंद सरस सुगुण संजुत्तं । ललियंग कुमर चरियं ललणा ललियव्व निसुणेह ।'
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इसकी भाषा को प्राकृत, अपभ्रंश तथा गुजराती बताया गया है । इसकी भाषा में कहीं-कहीं प्राकृत और अपभ्रंश के प्रयोग उपलब्ध हैं परन्तु अधिकांश रास की भाषा मरुगुर्जर है । इस रास के आदि और अन्त की पंक्तियाँ भाषा के नमूने के रूप में उद्धृत की जा रही है : आदि
पढम ढम जिणंद, पढम निवं पढम धम्म धुर धरणे; वसहं वसह जिणेसं, नमामि सुरनमिय पयदेवं । सिरि आससेण नरवर, विशालकुल भमर भोगिंदा, भोगिंद सहिय पासो, दिसउ सिरि तुम्ह पहु पासो । मांडव दुर्ग का वर्णन देखिये
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महि महति मालवदेस, धणा कणय लच्छि निवेस, तिहं नयर मंडव दुग्ग, अहि नवऊ जाण किसग्ग । तिहं अतुल बल गुणवंत, श्री ग्याससुत जयवंत, समरत्थ साहस धीर, श्री पातसाह निसीर ।' रचना काल इस प्रकार बताया गया है।
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'कवि कविउ ईश्वर सूरि, तं खमउ बहुगुण भूरि ससि रसु विक्रमकाल, अ चरीय रचिउ रसाल ।'
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इसमें कवि ने गच्छ और गुरु परम्परा का भी वर्णन किया है । आपकी दूसरी रचना 'श्रीपाल चौ० ' सिद्ध चक्र चौ० सं० १५६४ में लिखी गई ।
१. देसाई जै० गु० क० भाग १ पृ० १०५ और भाग ३ पृ० ५३२
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