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________________ ३३२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कथाओं की तरह इसके भी अन्त में वत्सराज नाना भोग-रागों से उपराम होकर 'शम' की संयम द्वारा प्राप्ति करता है। ___ आज्ञासुन्दर-आप खरतरगच्छीय आचार्य जिनवर्द्धनसूरि के शिष्य थे। जिनवर्द्धनसूरि खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा के प्रवर्तक थे । आपकी रचना 'विद्याविलास नरेन्द्र चउपइ' (३६३:पद्य) सं० १५१६ में लिखी गई । श्री देसाई ने जै० गु० क० भाग १ में इस कवि का नाम न्यायसुन्दर उपाध्याय लिखा था किन्तु भाग ३ में सुधार कर आज्ञासुन्दर कर दिया है। श्री नाहटा जी ने इस पर एक लेख 'कल्पना' में प्रकाशित कराया था।' इसका प्रारम्भ इस प्रकार कवि ने किया है : 'गोयम गणहर पाय नमी सरसति हियइ धरेवि, विद्याविलास नरवइ तणउ चरिय भणउ संखेवि ।' चौपइ के अन्तिम छंदों में कवि परिचय इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है : 'इणपरि पूरइ पाली आयु, देवलोक पुहुतइ नरराय, ख रतरिगछि जिनवर्धनसूरि तासु सीस बहु आणंद पूरि ।३६१। श्री अन्या सुन्दर उवझाय नव रस किध प्रबन्ध सुभाय । संवत पनर सोल वरसंमि, संघ वयणे पविय सुरंम । यह चौपइ जै० गु० क० प्रथम भाग में इस प्रकार छपी है : श्रीअन्यायसुन्दर उबझाय, नरवर किध प्रबन्ध सुभाय । _इस प्रति का पाठ अशुद्ध है और पद्य संख्या भी गड़बड़ है शायद इसी के आधार पर देसाई ने इसके लेखक का नाम न्यायसुन्दर उपाध्याय पहले बताया होगा। इसमें अन्यासुन्दर का अन्याय सुन्दर और नवरस का नरवर पाठ होने से सब भ्रान्तियाँ हई होंगी। इस चौपई का अन्तिम छंद इस प्रकार है : 'विद्या विलास नरिंद चरित्र, भविय लोय अह पवित्त, जे नर पढ़इ सुणइ सम्भलइ, पुण्य प्रभाव मनोरथ फलइ।' ईश्वरसूरि--आप सांडेर गच्छीय सुमति सूरि के प्रशिष्य एवं शान्तिसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५६१ दशपुर (मंदसौर) में ललि१. श्री अ० च० नाहटा, 'परम्परा' पृ० ६० २. जै० गु० क० भाग १ १० ५१ ३. देसाई-जे० गु० क० भाग ३ पृ० ४७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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