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मरु-गुर्जर जन साहित्य
३३१ गेय ढालों में लिखे गये हैं। नौवाँ 'कालिकसूरि भास' है । इनमें तीर्थंकरों के पंचकल्याणक गर्भाधान, स्वप्न, जन्म, आदि का वर्णन किया गया है। गुणरत्नसूरि का समय सं० १५१३ के आसपास निश्चित है अतः यह रचना भी उसी समय की होगी। इनकी भाषा प्रसादगुणसम्पन्न, बोलचाल की मरुगुर्जर भाषा है। विषय वस्तु शीर्षक से ही स्पष्ट है। इन धार्मिक आख्यानों में साहित्यिक सौन्दर्य का सन्निवेश संभव नहीं है । कालिक सूरि भास की चर्चा अलग से इतिहासकारों ने की है पर मुझे ऐसा लगता है कि यह रचना भी कल्पसूत्र आख्यान का ही एक अंग है।
आसायत (असाइत)--आपकी रचना 'हंसवत्सकथा चौपई' ('हंसराज वत्सराज चौ०') की सं० १५१३ की हस्तलिखित प्रति विवेक विजय भंडार, उदयपुर से प्राप्त हुई है । अतः यह रचना अवश्य सं० १५१३ से पूर्व की ही होगी। श्री मो० द० देसाई ने इसे १५वीं और १६वीं शताब्दी की रचना बताया है।' अनिश्चित रचना तिथि के कारण इसे १६वीं शताब्दी के साथ रखा गया है क्योंकि १५वीं अनुमानाश्रित है और १६वीं प्रमाणित है। इस कृति के चार खंड हैं। प्रत्येक खंड की अन्तिम कड़ी में लेखक का नाम 'असाइत' आया है, यथा :
'गुरु चरण तीइ चितवी, कविजन पय पणमेसि,
आचारिइ 'असाइत' भणइ, वीरकथा वर्णवेसि ।१। इसमें पैठणपुर या पट्टण का वर्णन करते हुए कवि लिखता है :
'अमरावइ संमाणं प्रत्यक्ष प्रमाणं अवर नयराणं । पुर पट्टण पयठाणं अपठाणं वीर बावनया। शिखर वृद्ध दससहस प्रासाद कनक कलश धन नरवइ नाद,
गोदावरी नु निर्मल नीर पुर पहिठाण बसइ तसुतीर ।' इसके अन्त की कुछ पंक्तियाँ भाषा के नमूने के रूप में प्रस्तुत हैं :
सकल लोक राज रंजनी, कलयुग कथा ऊत्तउ बावनी, गाहा दुहु वस्तु चउपइ, सुजिस्यइ च्यारि बत्तीसां हुई। जअली मिणसइ विशाला, तिण मोहमाया जाला। सुणतां दोष दरिद्र सवि टलइ, भणई 'असाइत' तिहं अफला फलइ ।
इसमें वत्सराज की कथा चार खंडों में प्रस्तुत की गई है, अन्य जैन १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग १ पृ० ४६, भाग ३ पृ० ४५८
और २१०८
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