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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सं०
ओसवंशी सोनीसिंह (सीहु, सीहग ) रहते थे। उनकी पुत्री मेल या मेलाई का जन्म रमादेवी की कुक्षि से हुआ था । जब वह सात साल की थी तो ० १४९१ में रत्नसिंह सूरि ने उसे दीक्षित करके उसका नाम धर्मलक्ष्मी रखा । सं० १५०१ में रत्नचूला महत्तरा के पाट पर धर्मलक्ष्मी महत्तरा बनीं। उसी से सम्बन्धित यह भास कवि ने लिखा है । इसके प्रारम्भ की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
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सकल सदा फल विमल गिरि, जिण चउवीस प्रणाम । करि कवितु सोहामणू अ, गच्छ रतनागर नाम । रास के अन्त में रचनाकाल इस प्रकार दिया गया है। ‘जाणती अ गुरु उपगार, श्री धर्मलक्ष्मी मुहत्तरा अ, मंडबू अ नगर प्रवेसि, संवत पनर सतोतरइ अ । श्री मुहत्तरु अ भास करेसि, ओसवंसि आणंद मुनि ।
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श्री धर्मलक्ष्मी मुहत्तरा, अविचल जांससि भाण, अनिस अह गुण गाईतां रिद्धि वृद्धि कल्याण | "
आनन्द मेरु - पीपल गच्छ के गुणरत्नसूरि आपके गुरु थे । 'कल्पसूत्र आख्यान' और 'कालक सूरि भास' (सं० १५१३ ) आपकी उपलब्ध रचनायें हैं । कल्पसूत्र आख्यान के प्रारम्भ की कुछ पंक्तियाँ सरल भाषा के उदाहरणस्वरूप आगे प्रस्तुत हैं :
'सकल शासन देवी ध्याइइ ओ, कीजइ अ सखी कवित रसाल, वीर जिणंद गुण गाइइ अ, सांभलु अ सखी कल्प विचार, जस गुण पार न पामीइ अ, पावह अ सखी करइ विणास । अक मनां जेउ सांभलइ ओ, नवनिधि अ सखी तणउ निवास । सार सिद्धान्त वखाणीइ ओ ।" "
इसके ६ आख्यान छह ढालों में लिखे गये हैं । ये छहों आख्यान महावीर से सम्बन्धित हैं । सातवें में पार्श्वनाथ नेमिनाथ कल्याणक और आठवें में आदिनाथ पंचकल्याणक है । ये सभी भिन्न-भिन्न रागों और
१. ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय - पृ० २२० और दे० - जै० गु० कवि भाग १
प० ४५
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२. श्री अ० च० नाहटा 'परम्परा' पृ० ५९ और देसाई - जे० गु० क० भाग ३
पृ० ४५९
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