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मरु-गुर्जर जैन साहित्य ४९वें और ५०वें छन्द में कवि ने अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार बताई है :- श्री आणंद विमलसूरि, श्री सौभाग्य हर्ष सूरि,
दीपई दोइ जिसिया चंद सूर।। चिरं श्रीचरण प्रमोद गुरु, हरष प्रमोद रे,
भणइ आणंद प्रमोद रंगिइ ।५०।' भाषा में प्रवाह और लय है, नमूने के रूप में यह छन्द द्रष्टव्य है :'रचिऊ संति विवाहल, धरी उमाहलु, तुतु त्रिभुवन केरु नाहलु रे। भवभय भंजणु दालिद्र गंजण, वीर मेवाडउ मंडण रे ।
आपकी दूसरी रचना 'जिनपाल जिन रक्षित रास' में ६९ कड़ी हैं। इसकी प्रतिलिपि सं० १६२६ की प्राप्त है अतः रचना अवश्य १६वीं शताब्दी की होगी। यह भी प्रथम रचना के आसपास १६वीं के अन्तिम दशक में किसी समय लिखी गई होगी। इसके प्रारम्भ की कड़ी इस प्रकार है :
'सरसति मझ मति दीऊ धणी), गुण थुण हे सखी गोयम स्वामी। नाँमि चंपा सोहामणी), माकंदी हेम खाद रे। गायो जिनपाल जिन रक्षितांम सिऊओ, दूढा हे सखी अंग मझारि, धवल वंधिहि तस गाइशु ।
अन्तिम दो कड़ियों में कवि ने अपनी गुरु परम्परा का इस प्रकार उल्लेख किया है :-- 'चरण प्रमोद साम पुरु संघ जगीस, हरस प्रमोद दीसई,
__ नवनिधि सुख विलसइ। आणंद प्रमोद बोलइ, चिंतामणि तोलइ, जो भणइ भावि भोलइ,
मिलइ संपद टोलइ ।६९।' इन रचनाओं की भाषा सरल मरुगुर्जर है। काव्यत्व सामान्य कोटि का है। ___ आनन्द मुनि--आप ओसंवंशी है। आपकी रचना 'धर्मलक्ष्मी महत्तरा भास' ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में प्रकाशित है। भास से ज्ञात होता है कि रत्नसिंहसूरि ने रत्नाकर गच्छ की स्थापना की थी, उनके शिष्य उदयवल्लभ सूरि और ज्ञानसागर सूरि हुए। उस समय खंभात में १. श्री देसाई -जै० गु० क० भाग ३ पृ० ६०२ २. वही पृ० ६०३ ३. वही पृ० ६०४
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