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३२८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
'लहकई जोइ गमगमणीय रमणीय रास रमंति,
जलि जईकरि करी कमलि, रमलिनी खंति पूरंती ।१७।' आगे विरह वर्णन करता हआ कवि लिखता है :
'पूनिम रयणि निशाकर, स्या करईविरहि संताप ।
मलयानिल माँम मा हरी मां हरी करि तू पाप ।१९।' सब जोर लगाकर काम अन्ततः स्वयम् परास्त हो गया और गुरु को जयश्री प्राप्त हुई, यथा :
'श्री लक्ष्मीसागर सरि सीस लवधिई गोयम सरीस,
गुरि जयश्री वरीए, जिनहरि श्री वरीए ।२६।' कुल २७ छंदों का यह फाग काव्यत्व की दृष्टि से सामान्य है।
आणंद ---आप तपागच्छीय आ० हेमविमलसूरि, साधुविजय, कमल साधु के शिष्य थे । आपकी रचना '२४ जिनस्तवन' का समय सं० १५६२ है जैसा कि निम्न पंक्तियों से स्पष्ट है :
'इदु वाण रस नयण प्रमाण, ओ संवत्सर संख्या जाण । तपगच्छ गयण विभासण भाण श्री हेमविमलसूरि जुगह प्रधाण ।२८। पूज्य शिरोमणि पंडित राय साधुविजय गिरुआ गुरुराय, कमलसाधु जयवंत मुणिद, तास शिष्य मणि आणंद ।२९।'3
श्री देसाई ने इसका रचनाकाल १५६१ लिखकर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है और लिखा है कि यह रचना खरतरगच्छीय महिमासागर के शिष्य आनन्दवर्धन की चौबीसी का प्रथम स्तवन है। यदि यह कथन सत्य हो तो यह रचना १८वीं शताब्दी की होनी चाहिये।
आनन्दप्रमोद -आप तपागच्छीय चरणप्रमोद के प्रशिष्य और हर्ष प्रमोद के शिष्य थे। आपने सं० १५९१ में 'शान्तिजिन विवाह प्रबन्ध' लिखा जो एक प्रकार का विवाहलो है। इसमें शान्तिनाथ का संयमश्री से विवाह का रूपक बाँधा गया है अतः इसे 'शान्तिनाथ विवाहलु' भी कहा जाता है । इसके प्रारम्भ में सरस्वती की वन्दना है, यथा :
'सरसति सामिणी हंसला गामिणी, मझ मनि एक उमाहल ।
धवल प्रबन्धिहिं वार भवंतर सुन्दर शान्ति विवाहलु ।' १. प्राचीन फागु संग्रह पृ० ८०-८१ २. वही ३. देसाई -जै० गु० क० भाग १ पृ० १०७, भाग ३ १४९१-९२ ४. वही
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