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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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अमीपाल (श्रावक)-आप श्री शिवसुन्दर गणि के श्रावक भक्त थे । आपने दान के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए महिपाल रास की रचना की है। इसमें राजा महीपाल के चरित्र के माध्यम से दान का महत्व दर्शित किया गया है। यह चौपइ कथा रासबंध में लिखी गई है। रास के अन्त में रचना काल का निर्देश कवि ने किया है, यथा :---
'पनर बहुतिरि अश्विनि मास शुक्ल पक्ष पंचमि उल्हास
गुरुवारे कीधुचरी अमीपाल मनि आनन्द धरी ।१०९३ ।'' इस रास की पद्य संख्या १०९३ है, यह एक विस्तृत रास है। और यह सूचित करता है कि धीरे-धीरे इस शताब्दी से रासों का आकार बढ़ने लगा था। रास के प्रथम छद में जिन वंदना है, यथा :
'सकल मनोरथ पूरणो वंछित फल दातार, नाभिराय कुलि मंडणो शेत्रुज गिरि सणगार ।' रिसह जिणेसर सारदा, प्रणमी कवित करेसि,
महीपाल क्षत्रिय तणु, सुणता टले कलेसू ।५।' इसकी प्रति सं० १६२९ में श्री देवरत्नसूरि के चातुर्मास के अवसर पर सोमजी ऋषि द्वारा हंसलक्ष्मी के वाचनार्थ लिखी गई। ___ आगममाणिक्य-जिनहस गणि के शिष्य थे। इन्होंने अपने गुरु की संयम साधना और कामविजय पर एक फागु 'जिनहंस गुरु नवरंग फागु' नाम से लिखा । श्री जिनहंस तपागच्छीय लक्ष्मीसागर सूरि के शिष्य थे जो १५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के एक प्रसिद्ध जैनाचार्य थे। लक्ष्मीसागर सूरि प्रसिद्ध तपागच्छीय आचार्य और विश्रुत साहित्यकार सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे। सोमसुन्दरसूरि के एक अन्य शिष्य रत्नशेखरसरि ने सं० १५१६ में 'आचार्य प्रदीप' नामक ग्रन्थ के लेखन-शोधन में जिनहंस गणि की सहायता की थी। इन तथ्यों के आधार पर इनका समय १६वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ठहरता है।
प्रस्तुत फागु में प्रसंगतः वसंत वर्णन, विरह वर्णन, कामदेव पराजय आदि का वर्णन किया गया है । कामदेव वसंत की सेना सजा कर जिनहंस का संयम तोड़ने चला । रमणियाँ नृत्य गान करने लगी, इसका वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है :१. श्री देसाई-जै० गु० कवि भाग १ पृ० ५७० २. वही
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