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मरु गुर्जर जन साहित्य का वृहद् इतिहास बारबतसंज्झाय की भी दो पंक्तियाँ उदाहरणार्थ उद्धृत की जा रही हैं---
'श्री हेमविमल सूरि तणइ पसाइ लही करी कीधु संझाय,
श्री अनन्तहंस सीस इम कहई, जे भणे सिद्धान्त सर्वसिद्धि लहई।'' इनकी भाषा तथा १५वीं शताब्दी के किसी मरुगुर्जर कवि की भाषा में कोई विशेष अन्तर ढूढ़ पाना कठिन है। जनभाषायें अपने-अपने प्रदेश में बदल रही थी किन्तु जैन कवियों ने एक सम्मिलित भाषा शैली में कविता की परम्परा बराबर चालू रखी, इसीलिए गुजरात और राजस्थान का जैन साहित्य मरुगुर्जर में लिखा जाता रहा। इन रचनाओं का विषय स्तवन है अतः श्रद्धा का सन्निवेश स्वाभाविक है किन्तु काव्यत्व की ओर कवि का विशेष ध्यान नहीं है।
भावहर्षी शाखा में भी एक अन्य अनन्तहंस हो गये हैं जिनकी चर्चा यथास्थान की जायेगी।
अनन्तहंस के अज्ञात शिष्य ने ११ गणधरस्तवन' लिखा जिसकी भाषा शैली का उदाहरण भी यही दे दिया जा रहा है । इसके आदि की पंक्तियाँ देखिये :
'वीर जिणेसर पय पणमेवि, गणधर कवितकरू संखेवि,
गणधर अग्यार सनइ काजि, वर्द्धमान जिनशासन राजि ।” इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
'ईय समय जुत्ति सव्वसत्ति चित्तभत्ति वन्निया, वैशाख सुदि ग्यारसी दिनि वीरनाहि थापीया । ओ सयल गणहर ओ अग्यारसि जो अग्यारह भावीया,
श्री अनन्तहंस सीस इम कहि ते लहइ सुखसंपया । इस शिष्य की भाषा में द्वित्त की प्रवृत्ति और अपभ्रंश काव्य भाषा की रूढ़ि के निर्वाह का आग्रह अधिक दिखाई पड़ता है। यह भी एक स्तवन है । इसमें जैनधर्म के ११ गणधरों की स्तुति-वंदना की गई है। इस प्रकार का पूजा-पाठ सम्बन्धी साहित्य निश्चय ही साम्प्रदायिक होता है और इनमें साहित्य के शाश्वत तत्वों की खोज करना बेकार होता है। १. देसाई, जैन गु० कवि भाग १ पृ० १२० २. देसाई, जै० गु० क० भाग ३ पृ० ५५७
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