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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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१६वीं शताब्दी के कवियों का विवरण अनन्तहंस -आप तपागच्छीय जिनमाणिक्य गणि के शिष्य थे। जिनमाणिक्य ने प्राकृत में कूर्मापुत्र चरित्र और संस्कृत में दशदृष्टान्त चरित्र (सं०१५७१) तथा अपभ्रंश में 'अष्टाह्निका चरित्र' लिखा था । दश दृष्टान्त चरित्र के अन्त में लेखक ने अपनी गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है। तदनुसार आप रत्नशेखर, लक्ष्मीसागर, हेमविमल के शिष्य (जिनमाणिक) थे। श्री देसाई ने अनन्तहंस की तीन रचनाओं का विवरण दिया है (१) बारव्रत संज्झाय (२) इला प्रकार चैत्य परिपाटी (३) शत्रुजय चैत्य परिपाटी। सर्वप्रथम शत्रुजय चैत्य का विवरण प्रस्तुत है । शत्रुजय चैत्य परिपाटी एक ऐतिहासिक कृति है। इसमें ३४ कड़ी हैं, इसमें प्रसिद्ध जैनतीर्थ शत्रुजय चैत्य का स्तवन और वर्णन किया गया है। कवि प्रारम्भ में सरस्वती की वंदना करता हुआ कहता है :
'सारद सार दया करी दिउ अविरल वाणी, प्रामी स्वामी वीनवऊ मण तण एक आणी । अहजि अकजि ऊपजइ ऊलट मझ हीयई,
कहीइ सेत्रुजय पाय पूजवो जाईई।१।'1 इसमें कवि अपनी गुरु परम्परा के सम्बन्ध में लिखता है, यथा :
'सिरि लच्छिसायर पट्टदिणयर सुमतिसाधु सुरीसरो, तस पट्टि श्रीगुरु हेमविमल विजायमनि सुहंकरो। गुरुराज जिनमाणिक्य सीस श्री अनन्तहंस मुणीसरो,
सेत्रुञ्ज मंडन देऊ भविभवि बोधिबीज जिणेसरो।' 'इला चैत्य परिपाटी' में इडर स्थित चैत्य का स्तवन है । इस रचना का नमूना देखने के लिए इसकी चार पंक्तियाँ प्रस्तुत है :
'तव गच्छि दिणपर लच्छि सायर सुमति साधु सुरीसरो, श्री हेमविमल मुणीन्द्र जिनमाणिक गुणमणि सायरो। संथविओ श्री गुरु अनन्तहंस सीस लेसि जिणवरो,
श्रीसंघ चउविअ सुख बहुविह ऋद्धिसिद्धि सुहंकरो।'४६।' १. श्री मो० द० देसाई जै० गु० क. भाग १ पृ० १२०, भाग ३ ५० ५५६ और
पृ० १४९२ २. वही ३. वही, जै० गु० क० भाग १ पृ० १२०
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