________________
३२२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रतिष्ठा का आन्दोलन चलाया। लोकाशाह द्वारा किए गये प्रयत्नों के फलस्वरूप ही स्थानकवासी परम्परा का उद्भव और विकास हुआ।
लोकशाह और स्थानकवासी परम्परा-सामान्यतया लोकाशाह का जन्म सं० १४७२ कार्तिक पूर्णिमा को अरहटवाड़ा में होना माना जाता है। इनके पिता का नाम हेमा भाई और माता का नाम गंगा बाई था। ये अहमदाबाद में रत्नों का व्यवसाय करते थे। इनकी कार्यकुशलता और विवेकशीलता से प्रभावित होकर तत्कालीन गुजरात के शाहमूहम्मद ने इन्हें अपना खजान्ची बना लिया था, किन्तु वे प्रारम्भ से ही चिन्तनशील, कान्तिकारी तत्वशोधक प्रवृत्ति के महापुरुष थे। उन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। आगमों में वर्णित आचरण का तत्कालीन जैन समाज में अभाव देखकर इन्हें बड़ा कष्ट होता था। इन्होंने तप, त्याग, संयम और साधना द्वारा आत्मशुद्धि के शाश्वत सत्य को उद्घोषित करने का दृढ़ संकल्प किया और अपनी विचार धारा का खलकर प्रचार प्रारम्भ किया। इनके उपदेश से प्रभावित होकर लखमसी, भाणजी आदि ने इनकी शिष्यता स्वीकार की और सबने मिलकर धर्म जगत् में एक नवीन क्रान्ति का सूत्रपात किया। इन लोगों ने सं० १५३० के आसपास मूर्तिपूजा
और धर्म के नाम पर चलने वाले आडम्बरों का जोरदार विरोध प्रारम्भ किया। इन सुधारकों ने कई क्रियाओं जैसे पौषध, प्रतिक्रमणआदिको अमान्य कर दिया। जिनमूर्ति पूजा को निरर्थक घोषित किया। स्वयम लोकाशाह ने दीक्षा भी नहीं ली और वे तथा उनके अनुयायी ऋषि कहे जाने लगे। धीरे धीरे कई कारणों से श्वेताम्बरों में इनकी संख्या बढ़ती गई। मुसलमान बादशाह फिरोज शाह और गुजरात का 'बेगड' तो मूर्तियाँ तोड़ ही रहे थे। इन लोगों ने उनकी पूजा को जब व्यर्थ ठहराया तो पुरातन पंथी बड़े बौखलाये और एक बार थोड़े समय के लिए जैन समाज में हलचल मच गई। मूर्तिपूजक इन्हें मूर्तिपूजा का तिरस्कार करने के कारण 'लुम्पक' कहने लगे जबकि ये लोग अपने को 'ढूढिया' कहते थे । सं० १५७० में रूप जी ऋषि ने इसी लोका, लुम्पक या दुढिया में से स्थानकवासी सम्प्रदाय का प्रारम्भ किया। इसी समय कडुवा द्वारा प्रवर्तित 'कड़वामत', पार्श्वचन्द्र द्वारा पार्श्व गच्छ आदि मत-मतान्तर भी लोकाशाही की देखादेखी आये। धर्म के अन्तर्गत बवाद का समय आया। खण्डन-मण्डन का वातावरण गर्म हुआ, पर धीरे-धीरे सब शान्त हो गया। इसी दूढ़िया मत से वाइस टोला
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org