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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
'जिहां जिहां जणाइ हिन्दू नाम तिहां तिहां देवा उजाड़इ ग्राम । हीन्दुनु अवतरीउ काल, जु चालि तु करि संभाल । "
इस विपरीत स्थिति में भी जैन मन्त्रियों और श्रेष्ठियों में शासक को अनुकूल रखने और जैनधर्म की उन्नति का प्रयत्न किया । मु० बेगड़ के शासन काल में भयंकर अकाल (सं० १५३९ ) जब पड़ा तो जैन श्रेष्ठि खेमाहडालिया ने अपार धन खर्च करके अन्न-वस्त्र दान द्वारा प्रजा को भुखमरी से बचाया । इसी समय से यह कहावत प्रसिद्ध हो गई 'एक वाणियों शाह अने बीजे शाह पातशाह ।' इस अकाल का विवरण खेमाहडालियानो रास' में अंकित है । यह रास ऐ० रास संग्रह भाग १ में प्रकाशित है । इसी प्रकार सं० १५८२ में दुबारा पड़े भयंकर दुकाल के समय जैन ओस - वाल मंत्री नगराज ने सदाव्रत चालू कराया और तीन करोड़ फिरोजशाही सिक्का खर्च करके भूखी जनता को काल के गाल में समाने से बचा लिया । "
सामाजिक परिस्थितियाँ -- भारतीय समाज प्राचीन काल से चार वर्णों में विभक्त था । इस काल में यह वर्ण - आश्रम व्यवस्था बिखर गई । वर्ण धर्म में परिवर्तन प्रारम्भ हो गया था । जैन धर्म का विशेष सम्बन्ध वैश्यों से था । उनमें भी विघटन हो रहा था । सं० १५१२ में दसा - बीसा का भेदः प्रारम्भ हुआ । इसी वर्ष लिखे गये 'कान्हड़ दे प्रबन्ध' में लिखा है
:–
'वीसा दसा विगति विस्तरी, एक श्रावकनि एक महेसरि ।
गुजरात में १५वीं शताब्दी से ही वैष्णवधर्म का प्रचार बढ़ने लगा था । सं० १५४६ में वल्लभाचार्य ने विद्यानगर में अनेक धर्म-सम्प्रदाय के पंडितों को शास्त्र में पराजित कर सारे देश का भ्रमण किया और वैष्णव भक्ति का प्रचार किया । सं० १५५६ में उन्होंने ब्रज में श्रीनाथ जी की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई और पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया । गुजरात, राजस्थान में भी वैष्णव भक्ति आन्दोलन का बड़ा प्रभाव पड़ा। बहुत से वैश्य परिवारों ने वैश्य धर्म अंगीकार किया और वे माहेश्वरी कहे जाने लगे । इस प्रकार वैश्यों में धर्म के आधार पर श्रावक और माहेश्वरी का भेद प्रारम्भ हुआ ।
१. श्री मो० द० देसाई – जैन साहित्यनो इतिहास पृ० ५१२ २. देखो - कर्मचन्द्र प्रबन्ध
३. श्री मो० द० देसाई - जै० साहित्यनो इतिहास पृ० ४९६
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