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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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१५८३ तक चलता रहा । बाबर ने अन्तिम लोदी बादशाह इब्राहीम लोदी को पानीपत के मैदान में पराजित कर दिल्ली में मुगल शासन का प्रारम्भ १६वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में किया। इस प्रकार यह शताब्दी अनेक राजनीतिक परिवर्तनों की शताब्दी रही। दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता तीन बार बदली अतः शासन व्यवस्था अस्थिर थी।
मुसलमान धार्मिक दृष्टि से बड़े कट्टर थे, अधिकतर शासकों की नीति हिन्दुओं के प्रति कठोर रही, किन्तु जैनों से इनके सम्बन्ध प्रायः शुरू से ही ठीक रहे । अलाउद्दीन के राज्यकोष का अधिकारी ठक्कर फेरु जैन था और स्वयं जैनसाहित्य का अच्छा लेखक था। भ० प्रभाचन्द्र को फिरोजशाह तुगलक ने अपने महल में बुलवाकर सम्मानित किया था। कहा जाता है कि तभी से उत्तरभारत में वस्त्रधारी भट्टारक प्रथा का प्रादुर्भाव हुआ। सुकवि रत्नशेखर सूरि का भी सुल्तान ने सम्मान किया था।
तुगलकों के समय से ही दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ गई थी और जगह-जगह प्रान्तीय शासक स्वाधीन होने लगे थे। मालवा, गुजरात और राजस्थान में स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो गये । सं० १४९० में चित्तौड़ की राजगद्दी पर राणा कुम्भा आसीन हुए। इनके शासनकाल में राजस्थान में जैन धर्म की तरक्की हुई। चित्तौड़ में जैन कीर्ति स्तम्भ और उसके निकट स्थित महावीर स्वामी के प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया गया। राणा कुम्भा के कोषाध्यक्ष बेलाक ने भगवान् शान्तिनाथ का मन्दिर बनवाया। सं० १५०५ में राणकपुर में भव्य जिनालय और आबू में देलवाडा जैनमन्दिर निर्मित हुए थे। जूनागढ़ के राजा मांडलिक ने (बृहत् तपा०) रत्नसूरि के पट्टाभिषेक के अवसर पर जीवहत्या पर रोक लगाने का आदेश जारी कराया था। उसी के राज्यकाल में सं० १५०९ में शाणराज ने विमलनाथ प्रासाद का निर्माण कराया जिसकी प्रतिष्ठा रत्नसिंह सूरि ने की थी। ___ इस शताब्दी के प्रारम्भ से ही गुजरात में मुहम्मद बेगड़ का शासन (सं० १५०२ से १५६८) था। इसने जूनागढ़ और चांपानेर को जीता था, इसीलिए बेगड़ कहलाता था। यह बड़ा अत्याचारी था; हिन्दू प्रजा पर इसने बड़ा जुल्म किया। इस काल का वर्णन करते हुए लावण्यसमय ने विमल प्रबन्ध (सं० १५६८) में लिखा है कि वह हिन्दुओं के गांव और मन्दिर उजाड़ देता था और हिन्दुओं के लिए साक्षात् काल था। कवि कहता है :
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