________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
३१७ दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि छन्दों के साथ ही इन कवियों विभिन्न प्रकार की राग रागिनियों, देसियों और ढालों का प्रयोग करके काव्य में संगीतात्मक प्रभाव उत्पन्न करने का स्तुत्य प्रयास किया है । संगीत के प्रमुख ६ राग और ३६ रागिनियों के नाना भेदानुभेदों के आधार पर इन कवियों ने अपने भक्ति प्रवण पदों में बड़ी मधुर संगीत योजना की है । अलंकार और प्रतीक आदि के उपयुक्त प्रयोगों से काव्य गुण का समावेश इनकी कविता में उत्तम ढंग से हुआ है । ऐसी कविताओं को कोरी साम्प्रदायिक कविता कहकर इन्हें साहित्य की सीमा से बाहर रखने का प्रयास समाप्त होना चाहिये ।
काव्यरूप – काव्यरूप की दृष्टि से इस काल में चरित काव्य, जिन्हें रास और चौपई कहा गया है, अधिक लिखे गये । १४वीं - १५वीं शताब्दी तक के रास लघु आकार के होते थे किन्तु १६वीं शताब्दी में इनका आकार बढ़कर मध्यम आकार का हुआ और १७वीं - १८वीं शताब्दी में ओर बढ़कर इनका आकार विशाल हो गया जो खेले नहीं जा सकते थे । रास और चौपइ का प्रयोग समानार्थक रूप में हुआ । इस युग में प्रबन्ध काव्य ( महापुराण, पुराण, चरित काव्य और रास आदि), मुक्तक काव्य ( आध्यात्मिक, भाव प्रधान, शौर्य-शृंगार- नीति प्रधान), रूपककाव्य, कथाकाव्य और लोककाव्य आदि नाना काव्यरूपों में जैनकाव्य प्रचुर मात्रा में रचा गया । इनमें लावण्यसमय, हीरविजय, समयसुन्दर, बनारसीदास, भैया भगवतीदास, आनन्दघन, यशोविजय और जिनदास आदि सैकड़ों महान साहित्यकारों की उच्चकोटि की रचनायें हैं जिनसे कोई भी साहित्य गौरवान्वित हो सकता है । उस विशाल साहित्य पर काफी आलोचनात्मक एवं शोधपरक कार्य हुआ है, जिसमें डॉ० मोतीलाल मेनारिया, डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, डॉ० हरीश एवं डॉ० जगदीश प्रसाद आदि के कार्य उल्लेखनीय हैं । इनके अलावा पुराने लेखकों में श्री मो० द० देसाई और श्री अ० च० नाहटा की प्रासंगिकता बराबर बनी हुई है । इस युग में देशी रजवाड़ों ने भी लेखकों को प्रोत्साहन दिया । वे स्वयम् भी साहित्य एवं कलामर्मज्ञ तथा कभी-कभी अच्छे रचनाकार होते थे । इनमें राणाकुम्भा, बीकानेर नरेश रायसिंह, अनूपसिंह आदि उल्लेखनीय हैं ।
मरुगुर्जर की जनेतर रचनायें - मरुगुर्जर साहित्य के प्रधान प्रणेता तो जैनकवि एवं चारण थे किन्तु कुछ जैनेतर कवियों की भी अच्छी रच
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org